Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 304
________________ ४१. ध्यान २७३ ६. स्तोत्र पाठ भक्त देवगणों की कोई आकृति आप न देख पायें; तदपि मानसिक जगत के साथ सम्बन्ध रखने वाले शब्दों में यह लक्षण अवश्यम्भावी है । इसलिये मन्त्रजाप्य के इस प्रकरण में केवल जिह्वा द्वारा शब्दोच्चारण करके सन्तुष्ट हो जाने की बात नहीं है, प्रत्युत अपने वाच्यार्थ की आकृति को साथ लेकर शब्द को मन में प्रविष्ट करने की बात है, अर्थात् जिस मन्त्र का या जिस शब्द का जिह्वा से उच्चारण किया जाए उसके साथ उसके वाच्यार्थ का रूप अथवा आकार भी मानस पट पर अंकित हुआ दिखाई देना चाहिए, जैसे कि अर्हत शब्द का उच्चारण करने पर, अर्हद् प्रतिमा का सांगोपांग-रूप मन में प्रत्यक्ष हो जाना चाहिए। इस लक्षण के अभाव में वह मन्त्रोच्चारण ग्रामोफोन का रिकार्ड मात्र बनकर रह जाएगा, जिसका ध्यान वाले इस क्षेत्र में कुछ अधिक प्रयोजन नहीं है। ६. स्तोत्र पाठ—इसी प्रकार किन्हीं स्तोत्र आदि का पाठ करना भी यद्यपि यहाँ कुछ प्रयोजनीय हो सकता है, परन्तु तभी जबकि मन्त्र-जाप्य की भाँति उसके वाच्यार्थ का ग्रहण करते हुये किया जाए, अर्थात् स्तोत्र पाठ के साथ-साथ उस भक्तिभाव का भी आपके हृदय में उद्भव हो जाए जो कि कवि ने अपने भावों के अनुसार उसमें ग्रथित करने का प्रयल किया है। क्योंकि शान्ति, समता अथवा ज्ञातादृष्टा-भाव की जागृति के अभाव में देवपूजा आदि कोई भी धार्मिक क्रिया धर्मध्यान नहीं कही जा सकती । मन ही जब बाजार में घूम रहा है अथवा अनेकविध विषयों का भोग करने में रत है तो उसे धर्मध्यान कहोगे या आर्तध्यान ? यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि ध्यान का सम्बन्ध मन के साथ है, जिह्वा आदि किसी अन्य इन्द्रिय के साथ अथवा शरीर के साथ नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि मन्त्रोच्चारण अथवा पाठोच्चारण का निषेध किया जा रहा है, प्रत्युत यह है कि इन सकल क्रियाओं द्वारा ध्यान के उक्त लक्षण की अर्थात् चित्तवृत्ति-निरोध की यर्थाथ सिद्धि होती रहे । निषेध है उस कि अन्तरंग प्रयोजन से निरपेक्ष वर्त रही है। अभ्यस्त हो जाने के कारण ये मन्त्र व पाठोच्चारण वास्तव में आज संस्कार की श्रेणी को प्राप्त हो चुके हैं, इनका उच्चारण करते समय बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । आज यह क्रिया मैकेनिकल (मशीनवत) सी हो गई है अर्थात् मन कहीं भी घूमता रहे, कैसे भी विकल्पों के जाल बुनता रहे, परन्तु ग्रामोफोन के रिकार्ड की भाँति मुँह अपना काम करता रहेगा, और हाथ अपना; मुझे स्वयं को इतना भी पता न चल पायेगा, कि किस प्रयोजन को लेकर मैं यहाँ बैठा हूँ। अन्तरंग में घूमा करूँ रागद्वेष के संसार में और बाह्य में करता रहूँ ध्यान । यह क्रिया जब कभी पहले-पहल प्रारम्भ की थी तब तो बुद्धि की कोटि में रहकर ही की थी, परन्तु तब यथार्थ प्रयोग किया नहीं, और अब जबकि स्वयं यह अबुद्धि की कोटि में जा चुकी है बुद्धि लगाकर भी मेरे प्रयोजन की सिद्धि कर नहीं सकती, अत: बेकार है। अब प्रश्न यह होता है कि मन्त्रजाप्य या स्तोत्र-पाठ आदि के द्वारा इस प्रयोजन की सिद्धि कैसे हो? लीजिये, छोड़ दीजिये मैकेनिकल प्रक्रिया को या किसी भी रटे हुये पाठ आदि के उच्चारण को , और स्वतन्त्र रूप से अपनी बुद्धि का प्रयोग करके उठाइये कुछ विचार अपने भीतर गद्य या पद्य में या मात्र अपने अन्तर्जल्प में । देखिए कितना पुरुषार्थ करना पड़ेगा आपको इस प्रक्रिया में । बुद्धि या उपयोग का कार्य एक समय में एक ही चल सकना सम्भव होने के कारण इस प्रक्रिया के करते हुये आपको अपने मन को जबरदस्ती उन विचारों में केन्द्रित करना पड़ेगा और वह अपनी इच्छा से इधर-उधर न भाग सकेगा । फलत: लौकिक रूप वाले तेरे-मेरे के विकल्प रुक जायेंगे और वीतरागता, निर्विकल्पता तथा शान्ति का वेदन प्रकट हो जायेगा। बस हो गई ध्यान के प्रयोजन की सिद्धि । मन्त्रजाप्य अथवा स्तोत्र-पाठ के रूप में किया जाने वाला यह ध्यान अल्प भूमिका वाले गृहस्थ या श्रावक जनों में अधिक प्रसिद्ध है, क्योंकि शक्ति की हीनतावश उनका चित्त भावना-भावन आदि में टिक नहीं पाता । विशेषता इतनी है कि वहाँ यह 'ध्यान' नाम न पाकर 'सामायिक' कहा जाता है, जैसाकि श्रावक धर्म के अन्तर्गत पहले बताया जा चुका है। ध्यान तथा सामायिक वास्तव में एक ही बात है, विशेषता केवल इतनी है कि सामायिक में चित्त की स्थिरता ध्यान की अपेक्षा कम होती है । वहाँ ज्ञानधारा तथ कर्मधारा दोनों का मिश्रण रहता है । सामायिक गत द्वन्द्व स्थूल होने के कारण बुद्धिगम्य होते हैं और ध्यानगत वे ही सूक्ष्म होने के कारण बुद्धि की पहुँच से बाहर होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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