Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 316
________________ ४३. उत्तम आकिञ्चन्य ३. आकिञ्चन्य देखिए दृढ़ता की महिमा, एक सूखे से पतले-दुबले निर्धन ब्राह्मण चाणक्य के पाँव में चलते-चलते घुस गई कुशा । बस गर्जना निकल पड़ी, ' चाणक्य के पाँव में घुसने का साहस कैसे हुआ तुझे ? किञ्चित् मात्र भी तेरी सत्ता इस वन में न रहने पायेगी, तेरा बीज नाश कर दूँगा ।' लगा सारे वन की कुशा को खोद-खोद कर उसकी जड़ों में छाछ डालने और तब तक चैन नहीं ली जब तक कि सर्वनाश न कर दिया उसका । नन्द राजा के मन्त्री ने भी देखा उसका यह दृढ़ संकल्प, मन ही मन विचारने लगा, “इसकी सहायता से अवश्यमेव मेरा प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा, अर्थात् नन्द राजा से अपने अपमान का बदला ले सकूँगा।” चाणक्य के पास पहुँचा और बोला कि चलिए ब्राह्मण ! आज नन्द-राजा के घर ब्रह्मभोज है, और ले जाकर बैठा दिया उसे राजा की रसोई में। विलासी राजा नन्द आया, “अरे यह कालाकलूटा सूखा सा नर कंकाल कहाँ से आया यहाँ ? निकाल दो इसे बाहर ।” अपमान करके चाणक्य को बाहर निकाल दिया गया परन्तु एक गर्जना उत्पन्न हुई उस दृढ़ संकल्पी ब्राह्मण में, “नन्द ! इस अपमान का दण्ड भुगतना होगा, किञ्चित् भी तेरा शेष नहीं छोडूंगा, यह शिखा तभी बंधेगी जब तेरा बीज नाश हो जायेगा।” ओह ! कितना बल था उसकी गर्जना में और कितनी दृढ़ता, समस्त विश्व ने देख लिया उसका प्रभाव, नन्द का सर्वस्व नाश कर दिया गया । सत्ता आई सम्राट चन्द्रगुप्त के हाथों में, जिन्होंने पीछे दिगम्बर योग धारण करके वही उपरोक्त गर्जना उत्पन्न की अपने अन्दर, 'मुझे शान्ति चाहिये इसके अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी नहीं, और विश्व ने देख लिया उसकी गर्जना का प्रभाव । ३. आकिञ्चन्य- परन्तु इस गर्जना का आधार क्या वह है जो कि कल के वक्तव्य में आपने समझा अर्थात् 'सर्वस्व का त्याग, विश्व के लिये सर्वस्व का दान' ? नहीं! ऐसा नहीं है । वस्तु का त्याग नहीं, वस्तु के देने का नाम दान नहीं । आकिञ्चन्य ही यथार्थ त्याग है, यथार्थ दान है, अर्थात् 'किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं है' यह धारणा ही त्याग है तथा दान भी । पहली गर्जना थी यह कि शान्ति के अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी मुझे नहीं चाहिए, और अब है यह कि शान्ति के अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं। 'मुझे नहीं चाहिए' और 'मेरा नहीं' इन दोनों में कुछ अन्तर प्रतीत होता है । पहली पुकार में ध्वनित होता है यह कि 'मैं ले सकता हूँ पर नहीं लूँगा' और दूसरी पुकार में ध्वनित होता है यह कि 'मैं ले ही नहीं सकता, जबकि मेरा कुछ है ही नहीं' । परन्तु वस्तुतः दोनों में अभिप्राय एक है, वास्तव में मेरा कुछ है ही नहीं । २८५ जरा विचार करके देखो तो पता चल जाए कि यहाँ वास्तव में मेरा है ही क्या ? मेरी वस्तु वह हो सकती है जो सदा मेरी होकर रहे । जिन वस्तुओं को मैं 'मेरी हैं' ऐसा मानता हूँ, उन्हें मैं अपने साथ लेकर जाता नहीं, यहाँ रहते हुए सदा वे मेरे साथ रहती नहीं, फिर कैसे उन्हें 'मेरी' कह सकता हूँ ? वास्तव में 'मेरी' कहना कल्पना है, जिसके अन्तर्गत छः भूलें पड़ी हैं । इन भूलों का नाम है षट्कारक । व्याकरण में आप सबने पढ़े हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण । इन छः के आधार पर ही मैं किसी वस्तु को 'मेरी' कहने का साहस करता हूँ । जैसे कि— पुत्रादि का पालन करता हूँ अतः मैं उनका कर्त्ता हूँ, उनका पालन मेरा कर्तव्य है अतः वे मेरे कर्म हैं, मेरे द्वारा उनका पालन होता है अतः मैं उनका करण हूँ, उनके लिए ही मैं सब न्याय-अन्याय कर रहा हूँ अतः वे मेरे सम्प्रदान हैं । उनका पालन करना मेरा स्वभाव है अतः वे मेरे अपादान हैं। मेरे आश्रय पर ही उनका जीवन टिक रहा है, अतः मैं उनका अधिकरण हूँ । इसलिए वे मेरे हैं। इसी प्रकार वे मेरी सेवा करते हैं अतः वे मेरे कर्त्ता हैं, मेरी सेवा करना उनका कर्तव्य है अतः मैं उनका कर्म हूँ, उनके द्वारा ही मेरी सेवा हो रही है वे मेरे करण हैं, मेरे लिए ही वे परिश्रम कर रहे हैं। अत: मैं उनका सम्प्रदान हूँ, मेरी रक्षा करना उनका स्वभाव है अतः वे मेरे अपादान हैं उनके आश्रय पर मेरा यह जीवन सुख से बीत रहा है अत: वे मेरे अधिकरण हैं । अर्थात् मैं उनका कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हूँ, इसलिए वे मेरे हैं; और इसी प्रकार वे मेरे कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हैं, इसलिए मैं उनका हूँ । इसी प्रकार मैं धन का कर्त्ता ( उपार्जन करने वाला), कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हूँ अतः धन मेरा है; और धन मेरा कर्त्ता (रक्षक), कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण है अतः मैं धन का हूँ । इस प्रकार मैं उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता हूँ । यदि शान्ति चाहता है तो भाई ! इस भ्रम को टाल । वास्तव में कोई भी तेरा नहीं । देख इस दृष्टान्त पर से विचार कर । एक अफीमची पड़े थे नदी किनारे वृक्ष के नीचे 'अरे ! अब कहाँ जाऊँगा, चलो भूखे ही सही, रात तो बीत ही जावेगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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