Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 314
________________ ४२. उत्तम त्याग २८३ २. आदर्श-त्याग अपने जीवन में उतारे बिना दूसरों को उपदेश देना अनधिकृत चेष्टा है। एक स्त्री किसी साधु के पास जाकर बोली कि 'मेरा लड़का मीठा बहुत खाता है, तंग आ गई हूँ, कोई उपाय बताइये ।' साधु बोला कि तीन दिन पीछे आना । वह तीन दिन पीछे आई तो फिर बोला सात दिन पीछे आना। वह सात दिन पीछे आई तो फिर बोला कि दस दिन पीछे आना । और इसी प्रकार दो महीने बीत गये, स्त्री निराश होती गई। पर दो महीने पश्चात् साधु बोले कि अपने लड़के को मीठा देना बन्द कर दो, उसका सुधार हो जायेगा । स्त्री को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, 'कौन नई बात बताई है महाराज ने दो महीने पहले ही क्यों नहीं कह दिया था आपने ? इतने दिन व्यर्थ ही पीछे-पीछे घुमाया।' 'ऐसा नहीं है देवी ! इतने दिनों तक मैं खाली नहीं बैठा, तेरे लिए उपाय ही सोचता रहा और अपने जीवन में उतारकर जब यह देख लिया कि बिना मीठा खाये भी काम चल सकता है तभी कहा है तुझे कि मीठा न देना ।' अत: भो प्राणी ! अपने जीवन में त्याग का आदर्श उतारे बिना दूसरे को त्याग का उपदेश देना तुझे शोभा नहीं दे रहा है। भले थोड़ा ही जीवन में उतार, पर जितना कुछ जीवन में उतारा जाए उतना ही दूसरों को उपदेश देना कार्यकारी है । आदर्श-त्याग की शरण में जाकर मेरा ग्रहण की रौ में बहते जाना क्या शोभनीक है, क्या इसे त्यागी गुरु का आश्रय कहा जा सकता है ? कुछ तो ले ले गुरुदेव से ? भले धन न छोड़, पर घर के अड़ंगे को तो कम कर सकता है । उसमें लौकिक रीति से भी तेरा लाभ ही है। भले उसे भी किसी को मुफ्त में मत दे, मोल बेच दे, उसका रुपया बनाकर अपने पास ही रख, पर उसे कम करके देख तो सही। बीस - कुर्सियों में से केवल दो रख, बाकी की बेच डाल, और फिर देख यदि कुछ शान्ति मिलती है तो आगे त्याग देना नहीं तो आठ की बजाये बारह और खरीद लेना । गुरुदेव का त्याग इससे भी अधिक तथा अनुपम है, उसकी महिमा अचिन्त्य है । यह धन-वस्त्रादि का त्याग व दान तो तुच्छ सी बात है, वे तो उस वस्तु का त्याग कर रहे हैं अर्थात् दान दे रहे हैं, जो कोई नहीं दे सकता। किसी एक को नहीं, समस्त विश्व को दे रहे हैं, शब्दों में नहीं जीवन से दे रहे हैं, रोम-रोम से दे रहे हैं, शान्ति का सन्देश, शान्ति का उपदेश, शान्ति का आदर्श, जिसके सामने तीन-लोक की सम्पत्ति धूल है, उच्छिष्ट है, वमन है । 1 खेद है अपनी दशा पर कि अपना वमन जानते हुए भी मैं उसी को फिर से ग्रहण करने के पीछे दौड़ा चला जा रहा हूँ । जिस वस्तु को एक बार नहीं अनन्तों बार ग्रहण कर-करके छोड़ दिया वह वमन नहीं तो क्या है ? कौन-सी वस्तु यहाँ ऐसी दिखाई दे रही है जो तेरे लिए नई है ? देव बन - बनकर, इन्द्र बन बनकर, चक्रवर्ती व राजा बन-बनकर कौन-सी वस्तु ऐसी रह गई है जो तूने न भोगी हो ? भूल गया है आज तू अपना पुराना इतिहास, इसी से नई लगती है यह । याद करे तो जान जाये कि हर भव में तूने इसे ग्रहण किया और हर भव में इसने तेरा त्याग किया। तू एक-एक करके इसे ग्रहण करता, इसका पोषण करता, और यह पुष्ट हो होकर एकदम तुझे आँखें दिखा देती। ऐसे कृतघ्नी को पुनः ग्रहण करने चला है, आश्चर्य है। अब तो आँखें खोल और इससे पहले कि यह तुझे त्यागे, तू इसे त्याग दे । यह है उत्तम त्याग- धर्म, जो त्याग के लिए नहीं बल्कि शान्ति के ग्रहण के लिए है । शान्ति के अभिप्राय से रहित किया गया त्याग दुःख का कारण है, उसकी यहाँ बात नहीं है । एक ओर है त्याग और दूसरी ओर है ग्रहण | त्याग में है शान्ति और ग्रहण में है संघर्ष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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