Book Title: Shanti Pane ka Saral Rasta
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 7
________________ प्रयास रहता है कि इस आध्यात्मिक ऊर्जा का आभामंडल लोगों के हृदय का अज्ञान दूर करके उन्हें अपने आलोक में प्रतिस्थापित कर सके । सभी ऋषि, संत और संबुद्ध स्त्री-पुरुष एक ही सनातन स्रोत से जुड़े हुए हैं । शरीर, मन, बुद्धि, भाषा इन सभी से भिन्न होने के बावजूद उनके भीतर ख़ुशबू तो उस एक सत्य की ही होती है। पूज्य श्री का कहना है- 'मैं तो केवल शून्य हूँ - बाँस की खाली पोंगरी जैसा । गीत तो प्रभु ही गा रहा है।' प्रवचन के समय ऐसा लगता है मानो 'वो अनामी' ही शब्दों को ओढ़कर प्रकट हो गया 1 है । अपनी सहज प्रकट होने वाली धारावत प्रवचन शैली में श्री चन्द्रप्रभ जी सभी विषयों को एक सहजता, सुगमता, सरलता, ओजस्विता और रसपूर्ण वाणी में तथाकथित धर्मों की दीवारों के पार, रूढ़िवादी प्रवृत्तियों का खंडन करके अपने आत्मिक और आनन्दपूर्ण विचारों से जनमानस को प्रेमामृत का पान कराते हैं । हम इस प्रेमामृत को पीएँ, जी भरकर जीएँ और फिर उड़ेलें इस रस को दूसरों के हृदय में । इस प्रेम की सुगंध को अपने मन-बुद्धि से परे प्राणों में भर लें और महकाएँ अपने सम्पूर्ण जीवन को । मन भ्रमित हो सकता है, बुद्धि भ्रमित हो सकती है, अत: अपने हृदय की गहराई को बढ़ाएँ और साधना के उच्चतम पथ की ओर बढ़ते जाएँ। 'भीतर यदि प्रेम, ज्ञान और हृदय हो तो ही तुम मानव हो ।' पूज्यश्री के इस संदेश को ध्यान में रखकर ही हम प्रस्तुत पुस्तक में प्रवेश करें। - गीता अरोड़ा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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