Book Title: Shanti Pane ka Saral Rasta
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 69
________________ गुरु की वाणी को सुनकर जाना गया सत्य सत्य का आभास है। धर्मशास्त्र को पढ़कर जाना गया सत्य 'शब्द-सत्य' है पर अपने-आप में उतरकर या आत्म-स्थित होकर जाना गया सत्य परम सत्य और पूर्ण सत्य है। संबोधि-साधना का मार्ग प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप से रूबरू करवाता है। इसलिए संबोधि-साधना और कुछ नहीं, केवल अपने साथ अपना साक्षात्कार है, होश और बोधपूर्वक अपने साथ की जाने वाली मुलाकात है। 'संबोधि' शब्द हमें भीतर का होश देता है। जब हम पलकों को झुकाकर अपनी मन:स्थिति को अपने में स्थिर करने लगते हैं, तो यह संबोधि शब्द हमें अपने प्रति होश और बोधपूर्ण बनने के लिए प्रेरित करता है। संबोधि की धारणा लिए हुए ध्यान में उतरना शांति और पवित्रता की तरफ बढ़ने वाला पहला कदम साबित होता है। साक्षीभाव से, बोध-दृष्टि से, एकाग्रता से ध्यान की शुरुआत होती है और स्वयं की भीतरी शांत स्थिति में होने वाली आनंददशा, ज्ञानदशा और मुक्तदशा में ध्यान की बैठक की पूर्णाहुति होती है। हमें ध्यान की बैठक की शुरुआत प्रवेश के तौर पर आधे घंटे से करनी है। ध्यान में हम श्वास के आवागमन पर ध्यान देते हैं। उस पर अपने होश और बोध को, सचेतनता को कायम करने लगते हैं, साधने लगते हैं। श्वास का अनुभव करते हुए हमें चित्त की अस्थिरता का सामना करना पड़ता है, पर ध्यान की सचेतन मानसिकता के चलते धीरे-धीरे हम उस पर विजय प्राप्त करते चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम पाते हैं कि हम शांत हैं, स्थिर हैं, बोधपूर्ण ध्यान 'एकत्व' में स्वयं का प्रवेश है। व्यक्ति धरती पर अकेला आता है, अकेला जाता है। बीच की व्यवस्थाएँ तो संयोग-संबंध हैं। ध्यान में हमें अकेले ही प्रवेश करना होता है। बाहर के हर तादात्म्य को ढीला करना होता है। यहाँ तक कि शरीर का तादात्म्य भी, विचारों का तादात्म्य भी ध्यान में बाधक है। ध्यान तो हमें कमल बनाता है- आत्म-कमल । सबके बीच, फिर भी सबसे मुक्त। ६८ शांति पाने का सरल रास्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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