Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 7
________________ June-2003 दामु दुरीअ विणासीअ, देवि दान उदासीअ कुंह कुमति विणासीअ, महीतलि जेणि विभासीअ जेणइ पुण्य सुवेलडी ए ||१७|| तास पीआ गुणपूरीअ, अवगुण कीधा दूरीअ सूरीअ नाथी सीहणि सारिखी ए ||१८|| सूर सुपन पामी तदा, सेजिइं सूतां एकदा आसीआतह (तेह ? ) तणी हुं सी भणु ए ||१६|| सा मुदा पति पासइ आवी वदइ ए || १९|| कूरिंग भणइ सुजाण ए, पुत्र हसि जगि भाण ए आण ए त्रिभुवन जेहनी चालसि ए ||२०|| अवधि संपूरण तव भई, जनमिउ पुत बहु गुणमई जगि थई कीरति रतिनइ आपती ए ॥ २१ ॥ नाम धरिडं तस हीरु ए, सो सब जगनु हीरु ए वीरु ए लाख चुरासी जीवनुं ए ||२२|| पूरव प्रीआ अजूआलीअ, रणसिंह लगि विशालीअ पालीअ पुण्यनीक तरु सीचवा ए ||२३|| लहूअलगि वइरागीअ, अथिर संसारनुं त्यागीअ वइरागीअ हीरजी रागी धर्मनुं ए ||२४|| वरस आठ दोई भरि, चारित्रस्युं मन अणुसरि आदरि वचन भणे पितु मातस्युं ए ॥ २५ ॥ राग गुडी ॥ दूहा ॥ ए गुणी पंडित हूंउ हवि, तम्हे धरु घरभार ! पाणिग्रहण तुम मेलीइ, उछ्व करी उदार ॥ १ ॥ वलतुं वी( ही ) र वचन भणि, मातपिता सुणि वाणि । नन परणुं व्यापार न न करु सु ताणो ताणि ॥ २ ॥ | Jain Education International 15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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