Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
View full book text
________________
26
शंकर तस प्रणमइ हेजिइं, श्रीहीर तपइ तपतेजिइं । गिरुइ कीआ ध- मु गाला, वसुधा भई मंगलमाला || १८ ||
ढाल ८ || सारी
दूहा ||
शांतचंद वाचक प्रतिइं, कहत अकब्बर शाह । श्रीविजयसेनसूरिंद किउं नाया कहत उछाह ॥१॥ तुम याई ए वथुउ (?) - हीर पेस क्या लेउ । वाचक कहि श्रीशाहजी, विमलाचल गिरि देउ ||२|| सेत्तुं सयल मुकी तमुं (?) तुम ही दीया गिरनार । श्रीहीरविजयसूरि पेस कीय, दीइ फुरमान उदार ||३|| ढूंबा जेउर जाजीआ, अकर करि जे कोइ । सूली फांसा टालया, भुमथी ( ? ) छंडे सोइ ||४||
भाणचंद उवझायका, वेग देयो वास । हुआ पहुचाई हीरकुं कुछ्य मांगतहु हम पासि ॥५॥
आदमुं मोकलाय करि, वाचक गूजर देसि । आवइ बहु उछवसहित विजय बुलाव नरेस ॥६॥ हीर पाय प्रणमी करी, महीतलि सो फुरमान । सेत्तुंजगिरि मुगतु सदा, सब जीवकुं अभयादान ॥७॥
रायधनपुरवरमांहि तव, श्रीगुर अछिचुमासि । श्रीविजयसेनसूरि तेडवा, वड मेवडा उल्लासि ॥८॥
अनुसंधान - २४
आइ कहि श्रीजगत्रगुर, तुमे संभारु बोल । श्रीविजयसेनसूरिंदकुं भेजूं उहि रंगरोल ॥९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32