Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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अनुसंधान-२४
धन्य हीर अकबर सुधिन, धन्नविजय धन धन्न । हेम रत्न कुंदणपरिई वणि मिल्यां एक मन ॥२॥ त्रिभुवन हिंसा वारवा, सेनानी समत्थ । धन्नविजय पंडित शिरिई, साचा जगगुर हत्थ ॥३॥ श्रीशांतिचंद्रवाचक प्रतिइं, थापी छत्रपति पासि । उद्भुत गुतबव(?) पुण्यघट, विचरइ मन उल्लास ॥४॥ श्रीजिनशासनसुलतानजी, आवइ जेम सुलतान । महीतलि आण मनावतु, त्रिभुवन लहितु मान ॥५॥ सारं बध किउं बनि सकुं, मेरे मुखि एक जीह । हीर हीर - वर जपि, सुजसचंद कीअ लीह ॥६॥ आनंदिउ संसार सब, पशुपंखिनि कुलकोडि । असपति नरपति गजपती, सीस नमि कर जोडि ॥७॥
ढाल ॥ मारु ॥ . आविइ होर धर्मविणजारा, सब पुन्य वस्तु नही पारा । सई सबल वृषभ मुनि धोरी, धरि सबल भार रीस बोरी ॥१॥ गुरगुणके छतीस कृयाणे, सो सबहि समेटी आणो । जे आंग उपांग के जोडे, सो धरहि भार नही थोडे ॥२॥ गुरवाणिसु साकर सारा, बनावइ गिहुं परि फारा । गुण गूंणीमई न न मावइ, सो परमारथकुं ध्यावइ ||३|| वर वाचक हाथी डोडे, मुनि सबल सेन नहीं घोडे । जिनआण-समीआणे डेरे, जिणि पाप वेरै सब थेरे ॥४॥ नव चा(वा?)डि फिराई वालइ, इयु देसविदेस स्युं चालइ । तहां सुजसवाज बहु वाजइ, शोभा धजती(नी?) परि छाजइ ॥५।।
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