Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 23
________________ June-2003 31 ढाल ॥ राग रामगिरी ।। दूहा ॥ आलमपनह जलालदीन अकबर कहत सूजाण । ईछा लिपबइतां लिषि देखइ अष्टविधान ॥१॥ नंदविजय सो देखी करि, मेटी लिखि सो फेरि । ऊलटा वांचत नही खता प्रबल विधांनां नेरि ॥२॥ नंदीविजय प्रति साहजी, थापि सो खुशिफिम | उर परीक्षा अतिभली, करि शाहजी इम ॥३॥ वादीजित् शवशाशनी, तास छोडाया मांन । घोडा महिषी महिष न न मारि सो फुरमांन |४|| ढाल ॥ मुनिपती तुम्ह योगी बिरागी सब संसार के त्यागी हो तूम्ह गूण देखत भए रागी हो ॥१ मुनि० ॥ अवल एक पूछत हूं तुम्ह पिं पतशाह कहि बांनी । सूरिज गंग संग न न बंछु साच जूठ क्युं जांणी ॥२ मु०॥ च्यार खंड के पंडित सब मिली उनकी देत ऊगाही । विजयसेनसूरि कदि हठरत उनमि सूधि मति नांही ॥३ मु० ॥ __ जगतपति तुम्ह हु धर्म के रागी । सूरेज नाम शितसहस पढि हम, गंगरंचित भीना वाद करत वादीकु ऊतर, जो पूछत सोई दीना ॥४ जगत० ॥ अकबर शाहकु दिल खुसी भई, कहि मांगु सो दीजि । लाहुर आदि शंध-ठठा लगि, मारिनिवारन कीजि ॥५ जगत० ॥ मारिनिवारन मास छहू लगि, जगतगुरुकुं दीनी । अब तु सकल भूवनप्राणी प्रति उमरवधारण कीनी ॥६ मुनी० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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