Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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अनुसंधान-२४ हीर बीर(बर) सावो त्रिभोवन काजी के विसे धोरी (?) शंकर कहत कोडि गुण तुम्हमि हूं क्युं बरनूं मति थोरी ॥७ मुनी०।।
ढाल ११॥ राग मेवाडो ॥ शाह मुराद अ क )बरसुतन, गाजि अम्हदावादि । पंडित गूणचंद पासिहि पटु फिरावि नादि ॥१॥ हीर खजांनि बिमलगिरि जाणी जगतमझारि । .... संघ चलावही, जे कुंता (हूंता?) संसारि ॥२॥ धन्यविजय पंडित प्रथि, सेत्तूंजगिरि नूं काम । जतन करेवा सुपहीसू, केइ न मगि (मागे?) दाम ॥३॥ पूरव पछिम उत्तरा दक्षण बहला देस । विवध सजाई वाहनां, विवध संचऊर वेस ॥४॥ लाहूर ओर नीलावभमल(?) गौड चौड करनाट । बेंगाला काबिल प्रटे, भोट छोट अ लाट ॥५॥ कासमीर खूरसाणका, शंधू सव लेख ताई । मूलतांनी ग्वालेरका संघपति सब आई ॥६॥ मरुधर मालव सरसोरठी, मेवाडी मनरंग । वागड नमीआडा तणां दख्यण केरा संग ||७|| पाटण अमदावाद उर, खंभाइत गूणगेह । संघपति गूजर तणा, सो दानि वरीषि मेह ।।८।। चुरासी बंदिरतणा, सोरठ संघ विनाणि । श्रीहीरविजयसूरि आपथिं धिन विलसि न न कांणि ॥९॥
(ढाल |) मूवी(पुहवी?)के भूषनां सेचूँजि पधारीइ सब भविका प्रति पार ऊतारीइ । संब(घ) दूख दूरीआं दूरि निवारीइ तूम्ह हा बोलावन अंवर उछारीइ ॥१॥
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