Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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अनुसंधान-२४ पंडित गणिवर मुनिवर सूंदर जिति ज्यत्यनी मनि भाया श्रीहीरविजयसूरीसर केरा सपरिवार सूखदाया रे ||ज्ञ सब० ॥ संवत सोल एकावन(वोछरि, श्री निजामपुरि आई तपगछपंडित गिरुआ सीसि वेली विजयसू गाई रे ॥६ सब० ॥ जब लगि मेरु मही रवि शशि नग सागर वाहनि राजइ हीरविजयसूरी कहइ शंकर जस पडहु तब गाजइ रे
सब जगकु तारण पाऊ ॥ इति श्रीविज[य]वल्लीरास संपूर्ण ॥
कठिन शब्दोनो कोश दूहा
पूर्वज व्यवरी विवरी-विवरणपूर्वक
परीआ
Uw
पाहि वीरु प्रीआ
करतां वीरो-भाई परिया-पूर्वजो
दूहा
वहुरसि
व्यवहार-व्यापार करशे
दूहा
३
.
लुंछन
न्युंछनक-लूंछणुं (गुरु सामे धरीने हाथी घोडा वगेरेनुं याचकोने अपातुं दान)
ढाल
व्यवध
विविध सोविन सोवन-सुवर्णतुं असमान आसमान-आकाश झंडाल नेजा झंडावाळा नेजा-ध्वजा
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