Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 17
________________ June-2003 25 तस नायक नवल निरंदा, श्रीहीरविजयसूरिंदा । सौ वेचइ धर्मक्रयाणा, ताथइ नायक लाभ सुजाणा ॥६!। वसलाभ प्रगुट जगि जाणइ, तेहनि शंकर वलीअ वखाणि । नागुर पवित्र सुकीना, तीहां आवइ हीर नगीना |७|| सो वात वइराटि सु जाणी, सा. इंद्रराज गुणखाणी । सो करहि विमल प्रासादा, वडा शिखरबंध गिरिवादा ॥८॥ गुर आइ प्रतिष्टा कीजइ, हम लछिका लाहा लीजइ । हम लिखइ लेख शिरनामी, पाउधारु जगत्रगुरु स्वामी ॥९॥ तव पासइ वाचकइंदा, श्रीकल्याणविजय मुनिचंदा । वइराटि प्रासाद उतंगा, जाइ करु प्रतिष्टा रंगा ॥१०॥ गुरवचन सु सीस चढावइ, वाचक वइराटि आवइ । तब करि नगर श्रृंगारा, सो वरसइ हेमकी धारा ॥११॥ दोइ कोडि द्राम सुविलासा, इंद्रराजकी पुहुचइ आसा । इम वाचक बहु जस पावि, कल्याणविजय मनि भावइ ।।१२।। नित काज वडे इम कीजइ, श्रीहीरकुं उपम दीजि । सीरोही टांडा आवइ, चुमास चतुर तिहां छा(था)वइ ॥१३॥ कितु देख्या सुन्यान जाण्या, सो वेचइ धर्मक्रयाणा । वडा राय खित्रीआं राणा, प्रतिबोधइ शवर (सरव?) सुजाणा ॥१४॥ इम पाटण अमदावादा, खंभायतका जगि नादा । खान आय मल्या बहु बंदा, नवा न - का करि आक्रंदा (?) ॥१५॥ सो हीरजी बंद छोडावइ, निज देस गाम घर पावइ । तस संघ पुण्यफल लेवइ, श्रीहीरकुं लाभ सुदेवइ ॥१६॥ पातसाह सनाषत चारा(?) - ष वडा धर्मविणजारा । इस पासि वडे फुरमानां, सब जीवकुं अभयादानां ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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