Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 20
________________ 28 अनुसंधान-२४ ढाल ९! राग केदारु ॥ दूहा ॥ श्रीअकबर पतिशाह प्रति, भाणचंद मुनिचंद । वीनती सामहीआतणी करि सुमंगल-कंद ॥१॥ सब वाजित्र पतिशाहकु, हय गय रथ असवार । संघ मल्या अतिसामटा, सो गणत न आवइ पार ।।२।। उत्तम दिन संजोइ करि, मिलिसु मन उच्छाह । देखी दिल भींतरि खुसी, इस गुणका नही ठाह ||३|| शाह परीक्षा कारणि, विविध बोल पूछंति । तस उत्तर सुलतान प्रति, हरखिई रंजन दिति ॥४॥ राग केदारु ।। तुम पग्मचारी किउं आए हो जगगुर के लाडिले तुम बहुत पिराणे पाय(ये) हो ज० । क्हु हीरजी हइ कुण ठाणि हो ज० ए कछ्यू कहीहि मेरेसु वाणि हो ज० ॥१॥ कद हमकुं करत अयाद हो ज० कइधु मोहे अजपा नाद हो ज० । तुम तास सीष्य पद ठाणि हो ज० हम पेग(म)सु लाया ताणि हो ज० ॥२॥ तुम आप खित्ताब गुरुं दीआ ज० तुम आप बराबरि करि लीआ ज० । तुम अवल कुण हइ याति हो ज० वइराग लीआ कुण भाति हो ज० ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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