Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ June-2003 23 वड सरवर मछीआं भरे, ता मइ हो न न मेहलुं डोर । बहिरी बाज न छाडिहुं न न पाडु हो बनमांहि सोर ॥४॥ मृग न मारुं नासता वनचरा सांबर अरु हो रोझ । कारशकार तणा करुं न धरूं हो ए पशुअनका गोझ ॥५॥ जनमदिवस अकबरतणा आपि हो खेलइ नवरोज । तस दिन कोऊ न जीऊ मरि मेवडे सो लेसो लेवइ षोज ॥६॥ श्रीअकबरसुत तीनके जनमके दिन सोइ अमारि । पजूसण दुमणे पलइं, अट्ठाई तो तुं संभारि ॥७॥ ईद परव पतिशाहकु, शाहकी हइ जे चांदराति । वरसगांठि शरकारमइ जोतम(?) दिनु नही जीउ का घात ॥८।। बंद छोडाए बहु दुनी जीउ थइ न न मारूं चोर । तुम दरिशन पातक टरे जे जे हो मइ कीए अधोर ॥९॥ अयुं अब केते दिन ही एसो कहत हो किम आवइ पार । उमर वधारि हीरजी, सब पंखी पशुअन आधार ॥१०॥ दयाधर्मध्यारी हुआ छत्रपति श्री साह जलाल । दीन दुनीका पातशा उछव हो करि मंगलमाल ॥११॥ मेरी आज्ञा जब लगि, तब लगि हइ तेरी आण । अइसी करि वलामणीउ, उज्जका(?) निजहत्थि फुरमान ॥१२॥ आप मस्यारे (?) मेवडे, श्रीगुरुको सो सेवइ पाये । कहि शंकर गूज्जरप्रति, आवइ हो श्रीतपगच्छराय ॥१३।। राग केदारु ॥ दूहा ॥ धन्यविजय धेन(धन) धन्य सो, महीतलि रक्खी माम (?) । जंघाचारणनी परिई करइ हीरनां काम ||१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32