Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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June-2003
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श्रीविमलहर्षवाचक प्रमुख, श्रीसोमविजय उव झाय । तास तणा गुण देखि करि, दिल्लीपति चमकाय ॥५॥
ढाल ॥ दिल्लीपति पतशाह अकब्बर, बोलइ बोल विचारी हीरविजयसूरीसर देख्या, साचा परउपगारी बे |दि० १॥ योगी यंगम यती शन्यासी, सोफी शेष मुलाणा मंती तंती यंती बहुविध यंदा जोसा जाणा बे ॥२॥ बौध वेस दरवेस सु तालिम(?) यौ वैष्णव अनुरागी को लोभी को धर्म न बूझइ, सो मत कहु वइरागी बे !॥३॥ दंडधरा मठधारी नागा, कंथा कंठि चलावइ गोदडीआ उर कडी कापडी, सो मनि कबूअ न भावइ बे ॥४॥ भसम चढावइ जटा धरावइ, मौनी नाम सुणावइ पंच धरि जे अगनि व्वो(छो?)डावइ, परमारथकुं ध्यावइ बे ।।५।। गिरी पुरी भारती कहावइ, ऊभा करि आहारा कीधी कपटी कूड चलावइ, सो किडं पामइ पारा बे ॥६॥ बोलुं बोलुं हक्क पुकारि, आप करि जीऊ मारि सो गुरु ग्यानी ग्यान दिखावइ, ऊभी पार ऊतारि बे ॥७॥ नारी भेष धरी जे नाचइ, अंगभंग दिखलावइ अयु प्रसाद जगदीश्वर केरा, मन भावइ सो खावइ बे ॥८॥ लाल गुलाल अबीरु छांटइ, दधि घमसाण मशचइ(?) कृष्ण उपर गोपिका बनावइ, अंगोअंगि लगावइ बे ॥९॥ घोडे हाथी मुहुर नगीना, दो दो तीन सु धारी बेटा बेटी व्याह चलावइ, लालुं के व्यापारी बे ॥१०॥
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