Book Title: Shankar Kavi Pranit Vijvalliras
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ June-2003 17 कीजइ भासन ॥१४॥ च्यारि खंड साहिब सुलतानां, अकबर इतना देत हि मानां । नु गुरकुं दीजइ आदेसा, चिले बुलावन सुंदर वेसा ॥१५॥ श्रीगुरु अमदावादि सु आवइ, खान मलिक सामहिणे यावइ । सब वृतंत कहि तब खानां, तुम परि खुसी भए सुलतानां ॥१६।। सोना रूपा वाहन दीजि, हीर कहत हम नजरि न दीजइ । पाउ चिलत- इ हेंडे ज्याणा, पंचग्रास मांगी करि खाणा ॥१७॥ खान मलिक खोजा वड मीरा, यु नीरागी सांचा पीरा । युं तारे मई सोहइ चंदा, तिउं बन्यु हीरविजयसूरिंदा ॥१८॥ संघ सयल मलीआ संसारी, चिलत हीरगुरु चरणविहारी । श्रीविजयसेनसूरीसर तेडा, तुं तपगछका तारण बेडा ॥१९॥ गणधी(धा?)री धर लीजइ सब म(अ?)ब भार तुमही सिर दीजइ सजल नयन शर नामइ पाया तुम जय लद्धयो तपगच्छराय शंकर कहत बोल लवलेसा, हीर सूर उदयु बहुदेसा ॥२०॥ ढाल ३ ॥ राग असाउरी ॥ दूहा ॥ देस विदेस विहारता, मारगि उछव रंग । ते कवीअण किम वर्णवइ, पंडित पोढा संग ॥१॥ श्रीवाचक उर चि- ध गणि, मुनिजन वादी साथ । उद्धत प्रतिवादी गजां, केसरि परि दि बाथ ॥२॥ शहर शरोमणि आगरि, पुहुता उछव कोडि । थानसिंह हय गय दीउं, लुंछन करि करजोडि ||३|| कोडिगमे सोवण्ण धण, विलसइ संघ सुजाण । आयु त्रिभुवनतिलक गुरु, सव गच्छपति सुरताण ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32