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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, पुरोवचन
सेंकडों वर्षो से जैनसंघ में इस ग्रंथ का अभ्यास होता आया हैं । इस ग्रंथ का भाव मध्यम क्षयोपशमवाले अभ्यासुओं को भी जानने-अनुभव करने को मिले इस उद्देश से इसका सरल शैली में भावानुवाद होना अनिवार्य है, ऐसा जैनशासन शिरताज तपागच्छाधिराज पू.आ.भ.श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा अनेक बार कहते थे । गुजराती भाषा में इस ग्रंथ का भावानुवाद सात वर्ष पहले प्रकाशित हुआ ही है ।
प्रस्तुत ग्रंथ हिन्दीभाषी वर्ग के लिए हिन्दी में तैयार किया जाता हैं । पूर्व प्रकाशित गुजराती भावानुवाद से प्रस्तुत हिन्दी भावानुवाद में अनेक परिशिष्ट नये बढाये गये है । षड्दर्शन विषयक उपलब्ध प्रायः सभी कृतियों को एक “षड्दर्शन सूत्रसंग्रह एवं षड्दर्शन विषयक कृतयः" नामक स्वतंत्र ग्रंथ में समाविष्ट किया गया हैं । तुलनात्मक अभ्यास आदि करने की इच्छा रखनेवाले आत्माओं को बहोत उपयोगी बनेगा।
प्रस्तुत ग्रंथ में किस किस क्रम से किस किस दर्शन संबंधित कौन-कौन से विषयों का निरूपण हैं, उसका निर्देश अनुक्रमणिका में किया गया होने से यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया है । इस ग्रंथ का भावानुवाद उपरांत परिशिष्टों की संकलना, टिप्पणीयाँ, तत् तत् दर्शन के तत् तत् विषयो के तत् तत् ग्रंथो के शास्त्र संदर्भ आदि के सहित सर्वांग सुंदर संपादन कार्य बहोत ही सूक्ष्मबोध, समय, कौशल्य, रूचि और महेनत माँग ले वैसा होने पर भी संपादकभावानुवादकार महात्मा ने उसको सांगोपांग पूर्ण करके अनुमोदनीय श्रुतभक्ति का कार्य किया हैं ।
जैन शासन शिरताज तपागच्छाधिराज पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंदसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्यरत्न उत्तम संयमी मुनिराज श्री दर्शनभूषणविजयजी महाराजा के शिष्यरत्न प्रवचनकार पंन्यास श्री दिव्यकीर्तिविजयजी गणीवर्य के शिष्यरत्न प्रवचनकार पंन्यास श्री पुण्यकीर्तिविजयजी गणीवर्य के वे शिष्यरत्न हैं और निर्मल संयम के लक्ष्य और पालन - प्रयत्नपूर्वक वे निरंतर व्याकरण, न्याय, दर्शन जैसी जटील लगती ज्ञानशाखाओं में निपुणता प्राप्त करके सम्यग्दर्शनादि की शुद्धि का पुरुषार्थ कर रहे हैं ।
उनका यह पुरुषार्थ अनेकानेक भव्यात्माओं को षड्दर्शन के बोध के द्वारा यथार्थ - अयथार्थ दर्शनो का बोध कराके यथार्थ मार्ग का श्रद्धान कराके उसके सुरुचिपूर्ण स्वीकार और परिपालन के मार्ग पे सर्वकर्म का क्षय कराके शाश्वत सुखात्मक मोक्ष को प्राप्त करानेवाला बने यही शुभाभिलाषा । का.सु. ५, २०६८
- जैनशासन शिरताज तपागच्छाधिराज पूज्यपाद आचार्यदेव ता. ३१-१०-२०११
श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्यालंकार सोमवार, पालीताणा
वर्धमान तपोनिधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय गुणयशसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्याणु - विजय कीर्तियशसूरी
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