Book Title: Savruttikam Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Unkonwn
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 568
________________ उत्तराध्ययन ॥६०२॥ | षट्त्रिंशमध्ययनम् गा १६५. १७० बावीस सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। छट्टीए जहन्नणं, सत्तरस सागरोवमा ॥ १६५॥ तेत्तीस सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६६॥ जा चेव उ आऊठिई,नेरईआणं विआहिआ।सा तेसिं कायठिई,जहण्णुकोसिआ भवे ॥१६७॥ व्याख्या-या चैव आयुःस्थिति रयिकाणां व्याख्याता सा तेषां कायस्थितिर्जघन्योत्कृष्टा च भवेत् , तेषा हि तत उद्धृत्तानां गर्भजतिर्यग्मनुष्येष्वेवोत्पाद इति ॥ १६१, १६२, १६३, १६४, १६५, १६६, १६७ ॥ मूलम्-अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहत्तं जहण्णगं । विजढंमि सए काए, नेरइआणं तु अंतरं ॥१६८॥ ___ व्याख्या-अत्रान्तर्मुहर्त जघन्यान्तरं, यदा कोऽपि नरकादुदृत्य गर्भजपर्याप्समत्स्येपूत्पद्यान्तर्मुहूर्त्तायुः प्रपूर्य क्लिष्टाध्यवसायवशात् पुनर्नरके एवोत्पद्यते तदा लभ्यत इति भावनीयम् ॥ १६८॥ मूलम्-एएसिं वण्णओ चेव,गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि,विहाणाई सहस्ससो ॥१६९॥ तिरश्च आहमलम-पंचिंदिअतिरिक्खा उ,दुविहा ते विआहिआ। समुच्छिमतिरिक्खा य,गब्भवतिआ तहा १७० ॥६०२॥

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