Book Title: Savruttikam Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Unkonwn
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 567
________________ * * | षट्त्रिंशमध्ययनम्. गा १५८ * भावः। काः पुनस्ता इत्याह-'रयणाभत्ति' रत्नानां रत्नकाण्डस्थितानां भवनपतिभवनस्थानां च आभा प्रभा यत्र सा रत्नाभा १ एवं सर्वत्र शर्करा लघुपाषाणखण्डरूपा तदाभा २ वालुकामा ३ पङ्कामा ४ धूमाभा तत्र धूमाभावेऽपि तत्तुल्यपुद्गलपरिणामसम्भवात् ५ 'तमत्ति' तमःप्रभा तमोरूपा ६ तमस्तमःप्रभा महातमोरूपा ७॥१५७॥ मूलम्-लोगस्स एगदेसम्मि,ते सत्वे उ विआहिआ। इत्तो कालविभागं तु,तेसिं वोच्छं चउविहं १५८ | व्याख्या-लोकैकदेशे अधोलोकरूपे ॥१५८॥ मूलम्-संतई पप्पऽणाइआ, अपज्जवसिआवि अ। ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआवि अ ॥१५९॥ सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण विआहिआ। पढमाए जहणणेणं, दसवाससहस्सिआ ॥१६०॥ व्याख्या-अत्र सर्वत्रापि स्थितिरिति शेषः ॥ १६॥ मूलम्-तिपणेव सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। दोच्चाए जहण्णेणं, एगं तु सागरोवमं ॥११॥ सत्तेव सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ। तइआए जहन्नेणं, तिण्णेव उ सागरोवमा ॥१६॥ दस सागरोवमाऊ, उक्कोसेण विआहिआ।चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा १६३। सत्तरस सागराऊ, उक्कोसेण विआहिआ।पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरोवमा १६४॥ * * *

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