Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 34 Dashvaikalik Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana

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Page 538
________________ आगम [भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३५५], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||७..|| जे अज्झयणे भणिआ भिक्खुगुणा तेहि होइ सो मिक्खू । वण्णेण जवसुवष्णगं व संते गुणनिहिमि ।। ३५५ ।। येऽध्ययने भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्तसमाध्यादयः तः करणभूतैः सद्भिर्भ-IN बत्यसौ भिक्षुर्नामस्थापनाद्रव्यभिक्षुव्यपोहेन भावभिक्षुः, परिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह-वर्णेन | पीतलक्षणेन 'जायसुवर्णमिव परमार्थसुवर्णमिव 'सति गुणनिधौं विद्यमानेऽन्यस्मिन् कषादी गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति-यथाऽन्यगुणयुक्तं शोभनवर्ण सुवर्ण भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो भिक्षणशीलो |भिक्षुर्भवतीति गाथार्थः ।। व्यतिरेकता स्पष्टयति जो भिक्खू गुणरहिओ भिक्खं गिण्हइ न होइ सो मिक्लू । वष्रोण जुत्तिमुवष्णगं व असई गुणनिहिम्मि ।। ३५६ ।। यो भिक्षुः 'गुणरहितः' चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षावृत्सिवात, किमिवेत्याह-वर्णन युक्तिसुवर्णमिव, पथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्ण न भवत्यसति | 'गुणनिधी' कषादिक इति गाथार्थः ॥ किंच उद्दिद्वकयं भुंजइ छकायपमहओ घरं कुणइ । पक्षक्खं च जलगए जो पियइ कह न सो भिक्खू ? ॥ ३५७ ॥ उद्दिश्य कृतं भुङ्ग इत्यौद्देशिकमित्यर्थः, षटकायप्रमर्दकः-पत्र कचन पृथिव्याापमईकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणीयालये मूच्र्छया वसतिं भाटकगृहं वा, तथा 'प्रत्यक्षं च उपलभ्यमान एव 'जलगतान्' दीप अनुक्रम [४८४..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति: ~538~

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