Book Title: Satyashasan Pariksha
Author(s): Vidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादकीय सत्यशासन-परीक्षा प्रस्तुत संस्करणमें सर्वप्रथम प्रकाशमें आ रही है। इसके प्रकाशनके साथ ही विद्यानन्दिका सम्पूर्ण प्राप्त साहित्य प्रकाशमें आ चुकता है । सम्भवतया यह विद्यानन्दिको अन्तिम कृति है, जिसे वे पूरा नहीं कर सके। जो पाण्डुलिपियाँ वर्तमान में प्राप्त हैं, वे सभी अपूर्ण हैं । आश्चर्य यही है कि विद्यानन्दिके अन्य ग्रन्थोंकी तुलनामें सत्यशासन-परीक्षाका प्रकाशन इतने विलम्बसे हुआ। सत्यशासन-परीक्षाकी जानकारी सर्वप्रथम पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'जैन हितैषी' ( भाग १४, अंक १०-११ ) में दी थी। उसके बाद स्व० ५० महेन्द्रकुमारजीने 'विद्यानन्दिकृत सत्यशासन-परीक्षा' शीर्षकसे एक विस्तृत निबन्ध 'अनेकान्त' (वर्ष ३, विवरण ११ ) में लिखा था। वे इसका सम्पादन करना चाहते थे, किन्तु अन्य कार्योंमें व्यस्त रहनेके कारण न कर सके और असमयमें ही उनका दुःखद अवसान हो गया। पी-एच. डी. के लिए सत्यशासन-परीक्षाका सुसम्पादित संस्करण तैयार करनेके विचारसे मैंने इसे मई १९६० में हाथमें लिया था। कई कारणोंसे यह पी-एच. डी. का विषय तो न बन पाया, किन्तु मनमें इसके सम्पादनका संकल्प अवश्य बन गया और सम्पादनको रूपरेखा मैंने डॉ० आ० ने० उपाध्ये, कोल्हापुरको भेजकर सुझाव आमन्त्रित किये। उत्तरमें डॉ० उपाध्येने न केवल रूपरेखाको हो ठीक बताया बल्कि पाण्डुलिपि तैयार होनेपर उसे ज्ञानपीठसे प्रकाशित करनेका आश्वासन भी दिया। की ताडपत्रीय कन्नड प्रतियाँ प्राप्त करने तथा उनके पाठान्तर लेने आदिके कारण सम्पादनकार्यमें विलम्ब आते दिखा। इसी बीच संयोगसे अक्तूबर १९६१ में प्राच्य विद्या सम्मेलन, श्रीनगरमें डॉ० उपाध्ये तथा डॉ० हीरालाल जैनसे मिलना हुआ। उनकी प्रेरणाके फलस्वरूप श्रीनगरसे लौटनेके बाद शीघ्र ही इस कार्यको पूरा किया और २८ दिसम्बर, १९६१ को पूरी सम्पादित पाण्डुलिपि प्रस्तावना तथा परिशिष्टों सहित डॉ० उपाध्येको भेज दी। संयोग ही कहना चाहिए कि सत्यशासन-परीक्षाको मुद्रित-प्रकाशित होते पूरे दो वर्ष लग गये। इस लम्बे अन्तरालमें जो नये महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आये, उनकी यहाँ चर्चा कर देना उपयुक्त होगा : आचार्य विद्यानन्दिके समयका निर्णय करते हुए मैंने पं० दरबारीलालजी कोठियाके निष्कर्षों के आधारपर विद्यानन्दिको उद्योतकरके टीकाकार बाचस्पति मिश्रसे पहले बताया है और कारण दिया है कि विद्यानन्दिने उद्योतकरका तो खण्डन किया है पर वाचस्पति मिश्रका नहीं। वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ ई० माना जाता है । फलतः विद्यानन्दि इसके पूर्व हुए । सत्यशासन-परीक्षाके ही साक्ष्यमें और जाँचने-देखनेपर ज्ञात होता है कि विद्यानन्दिने उद्योतकरके साथ-साथ वाचस्पति मिश्रका भी खण्डन किया है। सत्यशासन-परीक्षाके प्रारम्भमें ही पुरुषाद्वैतशासनपरीक्षाके पूर्वपक्षमें निम्नलिखित पद्य आया है, अनिर्वाच्याविद्याद्वितयसचिवस्य प्रभवतो, विवर्ता यस्यैते वियदनिलतेजोऽबवनयः । यतश्चाभूदु विश्वं चरमचरमुच्चावचमिदं नमामस्तद्ब्रह्मापरिमितसुखज्ञानममृतम् ॥ यह पद्य वाचस्पतिकी भामती टीकाका मंगल पद्य है। इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्दि वाचस्पति मिश्र के बाद हा। इसी सन्दर्भमें तत्त्वार्थश्लोकवातिकके इस उल्लेखको भी जाँचना-देखना चाहिए."तदनेन न्यायवार्तिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य त्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यातं प्रतिपत्तव्यमिति ।" (तत्त्वार्थश्लो० पृ० २०६) यहाँ न्यायवातिकटीकाकारसे विद्यानन्दिको वाचस्पति मिश्रका ही उल्लेख अभीष्ट है। इस प्रकार विद्यानन्दि वाचस्पति मिश्रसे तो निश्चित ही बादमें हुए सिद्ध होते हैं । For Private And Personal Use Only

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