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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् त्वेन सर्वस्य शब्दप्रत्ययस्य निर्विषयत्वात् । तदुक्तम् - [ ] येन येन हि नाम्ना वै यो यो धर्मोऽभिलप्यते । न स संविद्यते तत्र धर्माणां सा हि धर्मता ॥इति।। (द्रष्टव्यं त० सं० पंजिकायां ८७० कारिकायाम्)
न च शाब्दप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वाऽविषयत्वयोः किं प्रमाणमिति वक्तव्यम्, भिन्नेष्वभेदाध्यवसायेन प्रवर्तमानस्य प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वात् । तथाहि - यः 'अतस्मिंस्तत्' इति प्रत्ययः स भ्रान्तः यथा मरिचिकायां जलप्रत्ययः तथा चायं भिन्नेष्यर्थेष्वभेदाध्यवसायी शाब्दः प्रत्ययः इति स्वभावहेतुः । न च सामान्यं वस्तुभूतं ग्राह्यमस्ति येनाऽसिद्धताऽस्य हेतोः स्यात्, तस्य निषिद्धत्वात् । भवतु वा सामान्यम् तथापि तस्य भेदेभ्योऽर्थान्तरत्वे भिन्नेष्वभेदाध्यवसायो भ्रान्तिरेव, न ह्यन्येनान्ये समाना युक्तास्तद्वन्तो नाम स्युः । अनन्तरत्वेऽपि सामान्यस्य सर्वमेव विश्वमेकं वस्तु परमार्थत इति तत्र सामान्यप्रत्ययो भ्रान्तिरेव, न चैकवस्तुविषयः समानप्रत्ययः, भेदग्रहणपुरस्सरत्वात् तस्य । भ्रान्तत्वे च सिद्धे निर्विषयत्वमपि सिद्धम्, बाह्यस्वरूप किसी विषय को निमित्तरूप में नहीं मानते हैं, क्योंकि हमारे मत से शब्दजन्य सब प्रतीतियाँ भ्रान्त होने से निर्विषय ही होती है । जैसे कि कहा है -
जिस जिस नाम से जिस जिस धर्म का अभिलाप किया जाता है, कभी भी उस नाम से उस धर्म का संवेदन नहीं होता, चूंकि धर्मों का यह स्वभाव ही है [कि वचनमात्र को अगोचर रहना] ।
*शब्दप्रतीति भ्रान्त होने में प्रमाण★ 'शब्दजन्य प्रतीति भ्रान्त एवं निर्विषय है- इस बात में क्या प्रमाण है' - ऐसा प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि प्रसिद्ध ही है कि भिन्न यानी भेदवाले पदार्थों में अभेद के अध्यवसाय से होने वाली प्रतीति भ्रान्त ही होती है। देखिये - वस्तु का जैसा स्वरूप न हो ऐसे स्वरूप का उस वस्तु में भान होना यही भ्रम है। उदा० तप्त भूमिस्थल में सूर्यरश्मि के जलस्वरूप न होने पर भी वहाँ जल का आभास होता है वह भ्रम है । इसी तरह भिन्न भिन्न अर्थों में भेद का भान न हो कर अभेद का अध्यवसाय शब्दजन्य बुद्धि में होता है । इस प्रकार अतत्पदार्थ में तत्पदार्थबुद्धिरूप स्वभावहेतु से यह शब्दजन्य बुद्धि भ्रान्त सिद्ध होती है। अगर भिन्न भिन्न पदार्थों में कोई वास्तविक अभेदतत्त्व सामान्य गृहीत होता तब तो उस के ग्राहक अध्यवसाय 'अतत्स्वरूप वस्तु में तत्स्वरूप का ग्राहक' न होने से हेतु असिद्ध हो जाता । किंतु सामान्य कोई वस्तुभूत पदार्थ ही नहीं है, पहले खंड में ही उस का प्रतिषेध (पृ.४५२) हो चुका है। इसलिये हेतु असिद्ध होने का संभव भी नहीं है । कदाचित् सामान्य को सद्भूत मान लिया जाय तो भी विकल्पद्वय में वह अनुत्तीर्ण रहेगा | A अगर वह भेदों से यानी भिन्नवस्तुओं से सर्वथा पृथक् होगा तो भिन्न वस्तुओं में यानी अभेद(सामान्य)शून्य वस्तुओं में उस की प्रतीति भ्रमात्मक ही होगी । सामान्य तो भेदों से भिन्न तत्त्व है अत: उस से भेदों में समानता का होना संभव नहीं. फिर वे भेद सामान्यवाले = अभेदवाले हो नहीं सकते । B अगर सामान्य को माना जाय तो इस विकल्प में सारे विश्व के पदार्थ पारमार्थिकरूप से अभिन्न - एकरूप हो जाने से उन में सामान्यस्पर्शी प्रतीति भ्रान्तरूप ही होगी कारण, वस्तु जब तक एक ही है तो वहाँ समानता की प्रतीति (अभ्रान्तरूप में) सम्भव ही नहीं है क्योंकि पहले वस्तुओं में भेद गृहीत हो, बाद में ही उनमें समानता की प्रतीति हो सकती है । जब इस प्रकार दोनों विकल्प से सामान्यग्राही बुद्धि भ्रान्तिरूप सिद्ध होती है तो उस में निर्विषयत्व भी अनायास सिद्ध होता है, क्योंकि वहाँ कोई समानाकार बुद्धिजनक सामान्यरूप अर्थ है ही नहीं जो अपने आकार का बुद्धि में आधान करने द्वारा उस बुद्धि का आलम्बनभूत हो ।
अभिन्न
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