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गृहस्थ जीवन में प्रवेश
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जीवन की सच्ची दिशा से भटक कर मिथ्या विश्वासों और रूढ़ियों के बन्धनो में बुरी तरह जकड़ी हुई है। उच्च वर्ग अपनी जातीय श्रेष्ठता के अभिमान में शूद्रों के साथ अन्याय तथा अनोति फरने पर तुला हुआ है । "शोचनाद् रोदनाद् शूद्र"--शूद्र के भाग्य मे शोक करना, रोना ही लिखा है-शूद्र की यह कैमो दुर्भाग्यपूर्ण व्याख्या मानवता के साथ यह कैसा नग्न उपहास ।
___.. क्या यह जीवन महलों और सोने के सिंहासनों मे बन्द होने के लिए है ? नहीं, कदापि नहीं। यह खेल तो अनन्त-अनन्त बार खेला है। पर, इससे जीवन का क्या हित साधन हुआ है ? जीवन के महान् पथिक का उद्देश्य श्रान्ति-भवन में टिक रहना नहीं है। मुझे माया के नागपाशों को तोड़कर अन्धकार से प्रकाश की ओर चलना होगा और जीवन के क्षुद्र घेरों मे बन्द तथा अन्धेरी गलियों मे भटकते जगन को प्रकाश-पथ दिखाना ही होगा ।
राजा सिद्धार्थ और माता तृशला पुत्र को इस चिन्ताशीन मुद्रा मे देखते, तो विचार में पड़ जाते, सोचने पर मजबूर होजान कि कही राजकुमार रिसो दूसरी दिशा में न बह जाय ! फलत' माता-पिता ने जितनी जल्दी हो सके, उन्हें परिण्य-बन्धन में घाँध देना ही उचित समझा। माता-पिता के ममता-भरे आमने महावीर को मौन-सम्माति पर विजय पाती और समग्बीर नामा एक महासामन्त की सुपुत्री यशोदा के साथ उनका विवाह मंकार सम्पन्न होगया । प्रियदर्शना नामक उनके एक पुगे भी ।