Book Title: Sanmati Mahavira
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ ३८. सन्मति-महावीर का कोना-कोना भूख से हाहाकार कर रहा है। ऐसी स्थिति में शान्ति और धीरज कहाँ १ _ "भद्र ! यह ठोक है। परन्तु, रोने से भी क्या होता है ? साहस करो । जीवन के संघर्षों से वीरता के साथ युद्ध करो। मनुष्य को अपनी समस्याये आप ही हल करनी होती है।" __ "भगवन् ! मै तो सब ओर से हताश, निराश हो गया हूँ। अब तो केवल आपका सहारा ही मेरा उद्धार कर सकता है। मेरे अपने करने से कुछ नहीं होगा। "भव्य तुम्हारी दशा पर मुझे दया आती है। परन्तु वता, अब मै क्या कर सकता हूं? दीक्षा लेते समय यदि तुम आये होते, तो मै तुम्हारी उचित सहायता कर सकता था। अब मैं अकिचन भिक्षु हूँ , देने को अब मेरे पास है ही क्या ? ___ "भगवन् । सुअवसर का लाभ किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। मुझ अभागे को तब पता ही न चला, आता कहां से? आपको करुणा-वष्टि हो, तो अब भी क्या नहीं हो सकता! चाहे तो रत्तो की वर्षा कर सकते है, सोने का मेघ वरसा सकते हैं।" "भद्र ! मर्यादा से बाहर को वात न करो। मैं अपनी साधना पत्थर के चमकते टुकड़ों की वर्षा करने के लिये, सोने की मेघवृष्टि करने के लिये नहीं कर रहा हूँ। मेरी साधना तो विशुद्ध सत्य की शोध के लिये है। मैं कोई जादूगर नही हू, साधक हूँ।" "भगवन् ! दारिद्रय ने बुद्धि का विवेक नष्ट कर दिया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47