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अहिंसा और सत्य ये जीवन की दो पाखें है। अहिंसा को पाँख न हो, तो अकेले सत्य के पांख से साधना के क्षेत्र मे उड़ान नहीं भरी जा सकती। और सत्य के अभाव में केवल अहिंसा के बल पर भी साधना-पथ पर गति-प्रगति नहीं हो सकती। दोनों के भेल से साधना का जीवन गति-शील बनता है। असत्य के परिहार और सत्य के स्वीकार पर बल देते हुए भगवान महावीर ने कहा-"असत्य संसार में सभी सत्-पुरुषों द्वारा निन्दित ठहराया गया है, और वह सभी प्राणियों के अविश्वान का स्थान है, इसलिए असत्य छोड देना चाहिए। मदा प्रप्रमत्त १-मुनापात्रो य लोगन्नि, मनसाहहि गरहियो ।
परिसासो य भूयाण, तम्हा मोस विजए। दशव ६/१३