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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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सन्मति
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एक चिरन्तन सत्य
इतिहास की कसौटी पर परखा हुआ यह एक चिरन्तन सत्य है कि ससार में जब पापाचार, दुराचार, अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है, अधर्म धर्म का परिधान पहिनकर जन-गण-मन को भुलावे मे डाल देता है, धार्मिक मच पर भी असत्य, अन्याय, शोषण, उत्पीडन एव स्वार्थपरता का बोल बाला हो जाता है, जीवन के उच्चादर्शो को भूलकर मानव पार्थिव एषणाओ की भूल-भुलैया मे फंस जाता है, जन-जीवन में दैवी भावनाओ के स्थान पर आसुरी भावनाएँ अपना पजा जमा लेती है, मानवता के नाम पर दानवता का नग्न ताण्डव होने लगता है, तब कोई महान् आत्मा, सोई हुई मानवता के भाग्य जगाने के लिए, भूले-भटके
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गृहस्थ जीवन में प्रवेश
सन्मति महावीर बाल्यकाल से ही चिन्तनशील और गंभोर प्रकृति को साकार मूर्ति थे। वे अपने चारो ओर की स्थितिपरिस्थिति एवं वातावरण पर बडी गम्भीरता से चिन्तन-मनन करते और घएटो ही उस चिन्तनिका मे डूबते-उतराते रहते थे। वे विचारते कि-"धर्म के नाम पर कितना अन्धकार फैलाया जा रहा है। आज का धर्माधिकारी ब्राह्मण तथा श्रमण केवल पोथियों के ज्ञान में ही बन्द हो गया है! ज्ञान जब सत्कर्म से शून्य हो जाता है, तो वह प्रकाश की अपेक्षा अन्धकार ही अधिक पकने लगता है। कर्म का अर्थ सदाचार तथा नैतिक जीवन भुला दिया गया है और उसके नाम पर केवल अर्थशन्य, शुष्क एवं बड़ नियाकांड जनता के मत्थे मढ़ा जा रहा है। जनता भी
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गृहस्थ जीवन में प्रवेश
२१
जीवन की सच्ची दिशा से भटक कर मिथ्या विश्वासों और रूढ़ियों के बन्धनो में बुरी तरह जकड़ी हुई है। उच्च वर्ग अपनी जातीय श्रेष्ठता के अभिमान में शूद्रों के साथ अन्याय तथा अनोति फरने पर तुला हुआ है । "शोचनाद् रोदनाद् शूद्र"--शूद्र के भाग्य मे शोक करना, रोना ही लिखा है-शूद्र की यह कैमो दुर्भाग्यपूर्ण व्याख्या मानवता के साथ यह कैसा नग्न उपहास ।
___.. क्या यह जीवन महलों और सोने के सिंहासनों मे बन्द होने के लिए है ? नहीं, कदापि नहीं। यह खेल तो अनन्त-अनन्त बार खेला है। पर, इससे जीवन का क्या हित साधन हुआ है ? जीवन के महान् पथिक का उद्देश्य श्रान्ति-भवन में टिक रहना नहीं है। मुझे माया के नागपाशों को तोड़कर अन्धकार से प्रकाश की ओर चलना होगा और जीवन के क्षुद्र घेरों मे बन्द तथा अन्धेरी गलियों मे भटकते जगन को प्रकाश-पथ दिखाना ही होगा ।
राजा सिद्धार्थ और माता तृशला पुत्र को इस चिन्ताशीन मुद्रा मे देखते, तो विचार में पड़ जाते, सोचने पर मजबूर होजान कि कही राजकुमार रिसो दूसरी दिशा में न बह जाय ! फलत' माता-पिता ने जितनी जल्दी हो सके, उन्हें परिण्य-बन्धन में घाँध देना ही उचित समझा। माता-पिता के ममता-भरे आमने महावीर को मौन-सम्माति पर विजय पाती और समग्बीर नामा एक महासामन्त की सुपुत्री यशोदा के साथ उनका विवाह मंकार सम्पन्न होगया । प्रियदर्शना नामक उनके एक पुगे भी ।
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भोग में मन न रम सका
महाबोर राजकुमार थे । ससार का सुख-वैभव और भोगविलास की सामग्री उनके चारों ओर बिखरी पडी थी । मातापिता का वात्सल्य स्नेह अर्पण कर रहा था। बड़े भाई नन्दीवर्धन का अप्रतिम भ्रातृत्व आदर्श का प्रतीक बना हुआ था। दास-दासी सेवा में हाथ जोडे तत्पर रहते थे। पत्नी के रूप मे यशोदा चरण-चेरी बनी हुई थी। दुःख, अभाव, कष्ट क्या होता है-स्वप्न मे भी कही पता न था । एक ओर था समृद्ध परिवार का विलासमय जीवन और दूसरी ओर थी महावीर की वैराग्यपूर्ण वृत्ति प्रवृत्ति । विलासमय वातावरण उनको चिन्ताशील प्रवृत्ति को न बदल सका । भोग की भरी-पूरी दुनिया के बीच रहकर भी महावीर की आत्मा एक तरह की तृप्ति
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भोग में मन न रस सका : २३
का अनुभव कर रही थी। जब वे बाह्य सुख-साधनो पर दृष्टिपात करते, तो उनकी अन्तरात्मा पुकार उठती-"सच्चे , सुख का मार्ग तो कोई और ही है। यदि यह वैभव-विलास सुखदायी होता, तो आज संसार का जीवन दुख की जिन्दा तसवीर क्यों होता ? भारत का सामाजिक, नैतिक एव धार्मिक पत्तन उन्हें बेचैन किये हुए था। जब ये अपने चारो ओर की दुनिया पर एक समीक्षात्मक दृष्टि डालते, तो देखते कि संसार मे सब ओर एक गहरा अन्धकार परिव्याप्त है और मानवसमुदाय अपनी क्षुद्र वासनाओ की तृप्ति के फेर में पड़कर दूसरे प्राणियो के प्राणों के साथ खिलवाड कर रहा है। धर्म के नाम पर खुले आम हिसा-राक्षसी का नगा नाच हो रहा है। जिससे सर्वत्र हाहाकार का आर्तनाद सुनाई पड़ रहा है । यत्र-तत्र सर्वत्र स्वार्थ का खेल खेला जा रहा है।
यह सब देखकर महावीर को जवानी विद्रोह कर उठी। उनके विचारो में उथल-पुथल मच गई और आखिर, उन्होने ढ़ निश्चय कर ही लिया कि-"कुछ भी हो, मुझे इस समस्त संसार से ऊपर उठना है और जगलो को भी इस दु.ख से उबारना है। संसार में सुख-शान्ति और साम्य-भाव की गगा वहानी है । लेकिन, उसके लिए सर्वप्रथम मुझे स्वयं आत्म-बल प्राप्त करना है।"
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३६: सन्मति-महावीर
आध्यात्मिक सुख की साधना में तन्मय हो रहे थे। लौकिक विभूति के नाम पर उनके पास केवल एक देव-दुष्य वस्त्र है, वह भी अव्यवस्थित रूप से शरीर पर पड़ा हुआ है, और कुछ नहीं।
गरीबो बडी भयंकर बला है।। इसके समान संसार मे और कौन दुख होगा ? विपत्ति का मारा हुआ, गरोत्री का सताया हुआ, दरिद्रता से पिसा हुआ एक निर्धन ब्राह्मण उनके पास
आता है, और अन्तस्तल मे अवरूद्ध अपनी दुख-गाथा कहने लगता है।
"भगवन् ! आज आपके दर्शन पाकर धन्य-धन्य हो गया हूँ। कब से आपकी तलाश कर रहा हूँ ? वैशाली गया, श्रासपास के गाँवो और जङ्गालों को छान मारा; परन्तु कही पता ही न लगा । करुणानिधे मैं तो निराश ही हो चुका था । परन्तु, एक यात्री के मुख से ज्यो ही आपका पता चला, आशा को तुम होती हुई ज्योति पुनः चमक उठी।
महावीर ध्यान में थे।
"भगवन् ! आपके दान की क्या महिमा करूँ ' आपने तो दान का मेघ ही बरसा दिया। किन्तु, मैं हतभाग्य कोरा ही रहा। उन दिनों मैं दूर देशों में मारा-मारा फिर रहा था। घर
आया, तो पता चला कल्पवृक्ष सब-कुछ लुटाकर वनवासी भिनु हो गया है।"
महावीर मौन थे।
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मानवता को एक झलक' ३७
"भगवन् ! क्या निवेदन करूं ? आप ज्ञानी हैं, मेरी स्थिति आपसे छिपी नहीं है। जन्मतः दरिद्र हूँ, भाग्य का मारा हुआ हूँ। कभी सुख से दो रोटी भी पेट को नसीब नहीं हुई । और अब तो ऐसी दशा है कि घर मे अन्न का दाना तक नहीं । परिवार भूखों मर रहा है। अब यह डूबती नैया बचा लेना, आप ही के हाथ मे है।"
महावीर ध्यान में थे।
"दीनबन्धो ! मौन कैसे है ? ऐसे कैसे काम चलेगा? क्या अनन्त क्षीरसागर के तट से भी प्यासा ही लौटना पडेगा? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझ दीन पर तो कृपा करनी ही पड़ेगी।"
महावीर ध्यान में थे।
ब्राह्मण के धीरज का धागा टूट चला। उसकी आँखो से आँसुओ की अविरल धार उमड़ चली। वह गिड़गिड़ाकर महावीर के चरणों से चिपट गया। ___ महावीर आत्म-ध्यान में लीन थे। वे अखण्ड चिन्तनधारा में बहे जा रहे थे। परन्तु, अन्तहदय से करुणा का अदम्य स्रोत उमड़ पड़ा। वे ध्यान खोलकर बोल उठे:___ "भद्र ! यह क्या करते हो ? अधीर मत बनो। शान्ति रखो। जीवन के ये झमेले यों हो पाते-जाते रहते हैं। इनके कारण कातर होना उचित नहीं।"
"भगवन् ! क्या करूँ ? जीवन भार मालूम हो रहा है। घर
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३८. सन्मति-महावीर का कोना-कोना भूख से हाहाकार कर रहा है। ऐसी स्थिति में शान्ति और धीरज कहाँ १ _ "भद्र ! यह ठोक है। परन्तु, रोने से भी क्या होता है ? साहस करो । जीवन के संघर्षों से वीरता के साथ युद्ध करो। मनुष्य को अपनी समस्याये आप ही हल करनी होती है।" __ "भगवन् ! मै तो सब ओर से हताश, निराश हो गया हूँ। अब तो केवल आपका सहारा ही मेरा उद्धार कर सकता है। मेरे अपने करने से कुछ नहीं होगा।
"भव्य तुम्हारी दशा पर मुझे दया आती है। परन्तु वता, अब मै क्या कर सकता हूं? दीक्षा लेते समय यदि तुम आये होते, तो मै तुम्हारी उचित सहायता कर सकता था। अब मैं अकिचन भिक्षु हूँ , देने को अब मेरे पास है ही क्या ? ___ "भगवन् । सुअवसर का लाभ किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। मुझ अभागे को तब पता ही न चला, आता कहां से? आपको करुणा-वष्टि हो, तो अब भी क्या नहीं हो सकता! चाहे तो रत्तो की वर्षा कर सकते है, सोने का मेघ वरसा सकते हैं।"
"भद्र ! मर्यादा से बाहर को वात न करो। मैं अपनी साधना पत्थर के चमकते टुकड़ों की वर्षा करने के लिये, सोने की मेघवृष्टि करने के लिये नहीं कर रहा हूँ। मेरी साधना तो विशुद्ध सत्य की शोध के लिये है। मैं कोई जादूगर नही हू, साधक हूँ।"
"भगवन् ! दारिद्रय ने बुद्धि का विवेक नष्ट कर दिया है।
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मानवता की एक झलक : ३६
आपकी साधना जादूगर बनने के लिये नहीं है, यह सर्वथा अन्य है। परन्तु, क्या मै कल्प-वृक्ष को पाकर भी खाली हाथ लौटू ? आपके हाथ से कुछ भी चीज मुझे मिलनी ही चाहिये। मुझे आशा ही नहीं, प्रत्युत पूर्ण विश्वास है कि आपके हाथ की मिली हुई धूल भी मेरे भाग्य का वारान्यारा कर देगी, मेरे भाग्य की गति बदल देगी।" __ ब्राह्मण फिर रोने लगा। अब की बार उसकी आंखो के
ऑसू करुणामूर्ति से न देखे गये । मानवता का सबसे बडा श्रद्धालु पुजारी, भला दुखी को देखकर कैसे चुप रह सकता था ? मानवता की साकार मूर्ति महावीर ने करुणाई होकर देव-दुष्य उतारा, और उसका आधा भाग ब्राह्मण को दे दिया।
महावीर का फिर वही आत्म-मन्थन चल पड़ा।
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प्राणशत्रु पर भी अमृत-वर्षा
साधना-पथ पर आगे बढ़ते हुये महावीर को तन-मन में सिहरन पैदा कर देने वाली कठिनाइयो की अनेक पर्वतमालाओं को पार करना पड़ा । घोर-से-घोर उपसर्ग की जहरीली चूंट को भी समभाव के मधुर सस्पर्श से अमृत बना देना, उनकी जीवन-कला का जीवित परिचय था। विरोधी-से-विरोधी पर भी उनके तन-मन-नयन से क्षमा एव वात्सल्य का अमृत-वर्षण होता रहता था। ___ एक बार महावीर नदी के तट पर ध्यानस्थ खडे थे । चारों
और जगल की हरियाली लहलहा रही थी। शीतल, मन्द, सुगन्ध समोर बह रहा था। महावीर नेत्र बन्द कर आत्म-लीन हो अपने-आप में अपने द्वारा अपने-आप को खोज रहे थे।
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प्राणशत्रु पर भी अमृत वर्षा : ४१ जीवन के उन नितान्त एकान्त क्षणों में वे एक सहज प्रात्म-रमण का प्रपूर्व प्रानन्द लूट रहे थे।
महमा उनके समक्ष घुछ चिन्तित-सा एक ग्वाला पाकर खड़ा हो गया। और बोला-"महाराज | इस जगल मे चरते हुए आपने मेरे बेल तो नहीं देखे ?" __ महावीर ध्यान स्थिति में आत्म-विभोर हो रहे थे । अन्तर्जगत् में मौन मन्यन चल रहा था। अत उसकी बात का उत्तर भो कैस देते ? उनको मौन-मुद्रा में देखकर चाला चैलो की तलाश में श्रागे बढ़ गया। कुछ ही देर बाद वापिस लौटकर देखता क्या है कि "बल सन्त के आस-पाम ही चर रहे है और वे उसी तरह नेत्र बन्द किये खडे हैं।"
यह देसकर याला अपने-आपे में न रह सका। उसका रोम-रोम क्षुब्ध हो उठा। वह चीख कर बोला--"बस, बस, मै समझ गया हूँ कि तू महात्मा नहीं, दुरात्मा है । चुराने की नीयत में बैल तूने ही कही इधर-उधर छिपाकर रख छोड़े थे। ले देख, तुझे तेरी करनो का अभी कैसा मजा चखाता हूँ ?
इतना कह वह महावीर पर एक दम बरस पड़ा। लाठी, डेले और पत्थरों की अन्धाधुन्ध वर्षा होने लगी। परन्तु, महावीर अपनी शान्त-दान्त स्थिति में ध्यान-मग्न रहे । न कुछ हिले-डुले और न ही कुछ बोले-चाले । उनकी इस अपार सहिष्णुता और शान्त वृत्ति पर ग्वाला आश्चर्यचकित था। वह उनके मुखमण्डल पर अठखेलियाँ करते हुये तपस्तेज से हत-प्रभ-सा हो
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४२. सन्मति-महावीर
गया। गिड़गिड़ाकर महावीर के चरणों से चिपट गया, और अपनो दोन भाषा मे बोला-"भगवन् ! मुझ अपराधी का अपराध क्षमा कीजिये । मै नासमम हूँ, अज्ञानी हूँ।"
महावीर के अन्तहदय के कण-कण में अकृत्रिम प्रेम का शीतल झरना वह रहा था । अपराधी और प्राण-घातक पर भी इतना वातसल्य-माव! महावीर का रोम-रोम सहसमुख होकर घोल रहा था-'वत्स तुम्हें सन्मति प्राप्त हो। तुम्हारा कल्याण हो ।
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आत्मावलम्बन की ओर
महावीर की साधना 'अपने बल-बूते और आत्मावलम्बन के संबल पर चलती थी। अपने साधना-काल में उन पर एक-से-एक भयंकर श्रापत्तियों का कुचक्र चलता रहा। एक के बाद दूसरा तूफानों का झंझावात उन्हें झकझोरता रहा। उपसगों का बवडर अपनी भयावनी तस्वीर लेकर साधना-पथ में रोड़े अटकाता रहा। पर मजाल, महावीर ने किसी भी क्षण सहायता के लिए दायें-वायें प्रांख उठाकर भी देखा हो! स्वयं सहायता मांगना तो दूर, भक्ति-भाव से सेवा मे प्रस्तुत होने वालों की भी बात तक न सुनी। वस्तुतः महावीर का यह प्रात्मावलम्वन भादर्श और यथार्थ की सर्वोच्चता का एक सजीव रूप था। ।
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६४ : सम्मति - महावीर
निछावर कर दिया । साथ हो समूची शिष्य-मंडलो ने भी गौतम के चरण-चिन्हो का अनुसरण किया ।
भगवान् महावीर के अहिसा धर्म की यह सर्वप्रथम और शानदार विजय थी, जिसने विद्वत्समाज और जनसाधारण मे एक तहलका मचा दिया | हिसा के सिहासन की जड़े हिल उठी और सब ओर "अहिंसा परमो धर्म ", का महास्वर गूंज उठा !
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जन-सेवा वनाम जिन-सेवा
भगवान महावीर अपने समय के क्रान्तदर्शी जन-नायक थे। केवल ज्ञान और केवल दर्शन की महान्योति प्राप्त करने के बाद वे पैदल घूम-घूम कर निरन्तर तीस वर्ष तक जन सेवा करते रहे । जनता-जनार्दन को निष्काम सेवा करना हो तो उन का कर्तव्य शेष रह गया था । उनकी दृष्टि में जन-सेवा का कितना महत्वपूर्ण स्थान धा-इन्द्रभूति गौतम और महाबोर के निम्न ऐतिहासिक सवाद पर से इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है।
चिन्तन के क्षणों में बैठे हुए एक बार इन्द्रभूति गौतम के 'अन्तर्मन में महमा एक विचार धूम गया । उनके मन को एर मरामरन ने घेर लिया । ये मामन मेच्छे पौर प्रश्न काममा.
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निर्वाण
भगवान् महावीर के विशाल जीवन पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य सूर्य के प्रकाश की भाति स्पष्ट हो जाता है कि वह ज्योति-पुञ्ज एडी से चोटी तक क्रान्ति ही क्रान्ति था । उनकी क्रान्ति के पीछे मानव-जीवन के महानिर्माण की एक भव्य सृष्टि छिपी हुई थी। और उसी के लिए केवल ज्ञान का महाप्रकाश पाने के बाद तथा पूर्णत कृतकृत्य हो जाने के बाद भी वे दूर-दूर तक पैदल घूम कर अपने अन्तर्लोक की तेजोमयी प्रकाश-किरणो से मानव जीवन के अन्धकार - विलुप्त रहस्यो एव तथ्यों का उद्घाटन करते रहे ।
पावा नरेश हस्तिपाल के अत्यन्त भाव-भरे आग्रह पर भगवान् महावीर ने अपना अन्तिम वर्षावास राजा की रजुगसभा [पटवारी के दफ्तर ] में किया हुआ था । चातुर्मास के तीन मास व्यतीत हो
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निर्वाण ७३
चुके थे और चौथा मास भी आधा बीतने पर आ गया था। कार्तिक अमावस्या को प्रभात वेला थी । स्वाति नक्षत्र का योग चल रहा था। अपना अन्तिम समय जानकर भी वे जन-कल्याण के लिए दो दिन तक निरन्तर अपनी मृत्युञ्जय वाणी को अजस्त्र धारा बहाते रहे। अपने प्रात्मस्थित ज्ञान के उजियारे से जन-मन मे जीवन-ज्योति जगाते रहे, हजार-हजार हाथो से आत्म-ज्ञान को सम्पत्ति लुटाते रहे। महावीर के निर्वाण के समय नौ मल्लि और नौ लिच्छवि-जो अट्ठारह गणराजा कहलाते थे, पौपध-व्रत किये हुए, उस ज्योतिर्मय युग-पुरुष से ज्ञान का अक्षय प्रकाश प्राप्त कर रहे थे । स्वय भगवान महावीर भी दो दिन से उपवास मे हीथे। हजारोदर्शनार्थी उस महापुरुष के दर्शनो की लालसा लिए दौड़ रहे थे । कुछ नगर से बाहर सडको पर तेज रफ्तार से चले आ रहे थे, कुछ नगर को गलियों मे भाग रहे थे, कुछ उनका चरण-स्पर्श करने के लिए अपने हाथो को आगे बढ़ा रहे थे, इतने ही मे जीवन की चरम सास मे भी ज्ञान के प्रकाश की किरणें विकीर्ण करती हुई वह महाज्योति लोक-लोचनो से हमेशा के लिए ओझल हो गई। उनकी इस महायात्रा को जैन-भाषा मे निर्वाण या परिनिर्वाण कहते है । निर्वाण का अर्थ है पूर्णत अात्म-शान्ति । हमेशा के लिए मृत्यु पर विजय ! मौत को भी मौत !! सदा-सर्वदा के लिए अक्षय अजरअमर पद की प्राप्ति ।
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आत्मा का अमर व्याख्याकार
सत्य एवं शिव के एक प्रकाशपिण्ड-सा महावीर हमारी आँखो को चकाचौध कर देता है। हमारे सोचने-समझने को पद्धति पर उसका प्रहार निर्मम व्यंग्यो की वर्षा करता है। तत्कालोन पाखण्ड को उसकी वाणी यो अनावृत कर देती है, जैसे सत्यशोधक प्रवञ्चनाओ को चीर कर अपने अन्तर्मुख के दर्शन करता है।
वास्तव मे, विश्व की उस महत्तम विभूति का सन्देश तो प्रतिभा को ऐसी वेगवतो लहर है, जो जनता के दिल और दिमाग को झकझोर कर उसे शिव-मार्ग पर आरूढ़ होने की एक जीवित-जाग्रत प्रेरणा प्रदान करती है। उस महान् जन-नायक का मुख्य कार्य तो अपने अनुभव-मूलक विचारो द्वारा आध्यात्मिक, नैतिक तथा सामाजिक क्रान्ति कर मानव-समाज को विजय के उस पथ पर
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आत्मा का असर व्याख्याकार ७५.
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ले जाना है, जहाँ मानवता पतनोन्मुख होने की अपेक्षा कान्तिमान हो उठती है। जड़वादियो ने उसे 'नास्तिक' कहा, पर वह 'नास्तिक' संसार को श्रात्मा की अमर व्याख्या दे गया । वह हर इन्सान से यह आशा करता है कि वह अपने जीवन मे अहिसा का दामन पकडकर चले । उसकी दृष्टि मे वही समाज सदा सुखी रह सकता है, जिसने हिसा-मूलक नैतिक गुणो को अपने जीवन में आत्मसात् कर लिया है। व्यक्ति की नीव पर समाज का भवन खडा है । और यदि व्यक्ति ही पतित है, तो वह किस प्रकार उन्नत समुन्नत हो सकता है ? उस का मत है - "मानव स्वभाव निम्न व पतित होने की अपेक्षा उच्च एव दिव्य है । मानवो के सम्पूर्ण पापो को वह उनके स्वभाव की अपेक्षा उनकी बीमारी समझता है । दूसरे शब्दो में, पाप मनुष्य की अज्ञानता से उत्पन्न वे चेष्टाएँ है, जिन्हे दूर किया जा सकता है । "
सचमुच महावीर वर्गो से ऊपर उठकर सत्य का सच्चा व्याख्याता है | उसने समाज का ध्यान मानवात्मा के सौन्दर्य की ओर खीचा और उस सौन्दर्य मे उसने अहिसा एव सत्य का रंग भरकर समाज तथा राष्ट्र को शिवत्व की उपासना मे लीनतल्लीन किया | उसने कहा- "जीवन ही सच्ची शक्ति का स्रोत है । जीवन ही सच्चा धन है, वह जीवन जिसमे अहिंसा, सत्य,
नन्द और सद्भावना की लहरियाँ उठती है । वही राष्ट्र सब से अधिक धनवान है, जिसकी गोद मे अधिकाधिक उदार विचार
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७६. सन्मति-महाबोर
शील, दया-निष्ठ, सेवा प्रवण और सुखो मानवात्माएं पलती है। वही मानव सब से ऊँचा है, जो अपने जीवन के सम्पूर्ण कर्तव्यो एव दायित्वो को यथावत् पूरा करता है।"
कान्तदर्शी महावीर के जीवन की सुलगती हुई चिनगारी आज भी दानवी हिंसा, सामाजिक विपमता, अन्याय, अत्याचार शोपण, उत्पीडन और अमानवो दुश्चक्रो के नग्न ताण्डव को भस्मसात् करने के लिए हमे सजीव प्रेरणा दे रही है। आवश्यकता है, केवल दृष्टि के धुधलेपन को साफ करके निर्मल दृष्टि से देखने को । उनका जीवन श्रवण करने या अध्ययन करने की चीज नहीं, प्रत्युत उनके उच्चादर्शों के महाप्रकाश से प्रेरणा, स्कृति एव चेतना की जलती हुई चिनगारी लेकर जीवन मे विराट रूप देने के लिए है।
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धर्म-देशना
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धर्म-देशना क्यो और किस लिए ?
भगवान् महावीर केवल ज्ञान की महाज्योति पा चुके थे। कवल-बान और केवल-दर्शन को पाकर वे कृत-कृत्य हो गए थे। उनका अपना जीवन वन चुका था । अव उनके लिए कुछ करना या बनना शेष न था। वे चाहते, तो नितान्त एकान्त जीवन व्यतीत कर सकते थे-ससार से हजारो कोस परे, सर्वथा परे रहकर । परन्तु, उनका जीवन एकान्त निवृत्ति-परक-निर्माल्य नहीं था । ज्योही उन्होने कैवल्य की अक्षय निधि को पाया, तो वे प्रकाश के उस अक्षय भण्डार को बॉटने के लिए अपने एकान्त जीवन को निर्जन वन-गुफाओ मे से खीचकर मानव-समाज मे ले आए । 'सब्वजगजीवरक्खणयट्ठयाए' के अनुसार विश्वजनीन भावनाओ के लिए अपने-आप को अर्पण कर देना ही उनके
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तीर्थङ्कर-जीवन का उच्चादर्श था।
आत्म-ज्योति को पाने के बाद उन्होंने उसे हजार-हजार हाथो से बाँटना प्रारम्भ किया--किसी इच्छा-वश नहीं, किसी जिज्ञासावश नहीं, किसी स्वार्थ-वश नहीं, किन्तु, जैन-सस्कृति को मूल भाषा के अनुसार विश्वहितङ्कर-रूप तीर्थकरत्व स्वभाव-वश आम प्रदान-अर्थ । जिसके पास जो कुछ होता है, वह उसका उत्सर्ग करता ही है । उसके पास था अमृत रस, लबालब भरा हुआ, छलकता और वहता हुत्रा । वह उसी को हर तरफ देता हुआ चला, जन-गण-मन को जगाता और उठाता हुआ चला । उसके पास था आनन्द रस, वह उसी को सव ओर सरसाता हुआ चला, उमगाता हुआ चला । उसके पास था ज्ञान रस, वह उसो को चहुँ ओर छिटकाता हुआ चला, बरसाता हुआ चला। वह सब ही को अपने समान निष्काम और प्राप्तकाम, वशी तथा स्वतत्र बनाता हुआ चला । तीस वर्ष तक निरन्तर कर्मशील रह कर वह मानव-जगत् को निष्काम कर्मयोग का सक्रिय पाठ पढ़ाता चला। ___कॉटो मे खिलकर भी वह फूल ऐसा महका कि जिससे दिदिगन्त सुरभित हो उठा । जीवन के साक्षात् अनुभवो की अमूल्य थातो प्राप्त कर जो मधुर अनुभूतियाँ उसने जन-मच पर प्रस्तुत की, । उससे भारतीय जीवन का मरुस्थल वासन्तो सुपमा से मुस्करा ठा! जीवन के सच्चे और सफल कलाकार थे। उन्होंने भारत की आमा को अन्धकार के गर्त में ठोकर खाते और कन्दन
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धर्म-देशना क्यो और किस लिए ? ८१
करते देखा। उसकी पीड़ा का मूल कारण खोज कर उसके घावो पर मरहम लगाने का भी रचनात्मक प्रयत्ल किया । वे सामाजिक मच पर केवल समस्याएँ लेकर ही नहीं आए, समस्याओ का समाधान लेकर भी आए ? वे नाड़ी के परीक्षक, केवल वैद्य ही नही थे, कुशल चिकित्सक भी थे । उन्होने अपने सतत क्रियाशील जीवन से सिद्ध कर दिया कि निःस्वार्थ तथा निष्काम युग-दृष्टा ही समाज का सच्चा पथ-प्रदर्शक हो सकता है।
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हिंसा के प्रति खुला विद्रोह
वह युग यज्ञ-याग का युग था। यज्ञो मे होनेवाली वैदिको हिसा पर धर्म का रंग चढ़ाया जा रहा था । "यज्ञार्थ पशवः सृष्टा" आदि कपोल कल्पित सूत्रों के द्वारा पशु-जगत् की सृष्टि यज्ञो की सार्थकता के लिए ही हुई है- यह भ्रान्त धारणा जनता के गले उतारी जा रही थी। यज्ञीय हिंसा को स्वर्ग-प्राप्ति के सर्वश्रेष्ट साधन के रूप में मान्यता देकर हिसा को प्रोत्साहन दिया जा रहा था।
ऐसे हिसा-प्रधान वातावरण के प्रति अहिंसा के पूर्ण देवता महावीर कैसे मौन रह सकते थे ? उन्होंने हिंसा के विरोध में अपनी आवाज बुलन्द की और अपने सार्वजनिक प्रवचनो मे धर्म के नाम पर होने वाली इस घोर हिसा के प्रति खुला विद्रोह किया।
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हिसा के प्रति खुला विद्रोह : ३ उन्होंने अपनी गम्भीर भाषा से कहा-"हिंसा तीन काल मे भी धर्म नहीं हो सकती । ससार के सब प्राणी,-फिर चाहे वे छोटे हो या बडे, मनुष्य हो या पशु-जोना चाहते है। मरना कोई भी नही चाहता । सब को सुख प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय । मर को अपना जीवन प्यारा है। अतः किसी के प्राणो को लूटना, उसके जीवन के साथ खिलवाड़ करना, कथमपि धर्म नहीं हो सकता। प्राण-रक्षा धर्म हो सकता है, प्राण-हरण नहीं । क्योंकि अहिंसा, सयम और तप यही धर्म है । जिस हिसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता, और जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सब ही पसन्द करत है-जिन-शासन का यही निचोड़ है। यज्ञो मे धर्म के नाम पर अलि देना घोर पाप है। यह तो सीधी नरक की राह है। १-"सन्चे जीवा वि इच्छति, जीविडं न मरिजिड ।
-दशवैकालिक ६/११ २-"सचे जीवा सुहसाया दुक्खपडिकूला ससि जीविय पिय
--आचारांग २/३/८१ ३--"धम्मो मगलमुक्कि', अहिंसा संजमो तवो।"
दशवकालिक १/१ ४- इच्छसि अप्पणतो, ज च न इच्छसि अप्पणतो । त इच्छ परस्स वि मा, एत्तियग्गं जिणासासणयं ॥
-बृहत्कल्प
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अहिंसा और सत्य ये जीवन की दो पाखें है। अहिंसा को पाँख न हो, तो अकेले सत्य के पांख से साधना के क्षेत्र मे उड़ान नहीं भरी जा सकती। और सत्य के अभाव में केवल अहिंसा के बल पर भी साधना-पथ पर गति-प्रगति नहीं हो सकती। दोनों के भेल से साधना का जीवन गति-शील बनता है। असत्य के परिहार और सत्य के स्वीकार पर बल देते हुए भगवान महावीर ने कहा-"असत्य संसार में सभी सत्-पुरुषों द्वारा निन्दित ठहराया गया है, और वह सभी प्राणियों के अविश्वान का स्थान है, इसलिए असत्य छोड देना चाहिए। मदा प्रप्रमत्त १-मुनापात्रो य लोगन्नि, मनसाहहि गरहियो ।
परिसासो य भूयाण, तम्हा मोस विजए। दशव ६/१३
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सत्य : ६३
तथा सावधान रह कर, असत्य को त्याग कर, हितकारी मत्य ही बोलना चाहिए। इस तरह सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है। , यह सत्य हो लोक मे सारभूत है, जो महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है। जो विद्वान् सत्यमार्ग पर चलता है, वह ससारसागर को पार कर जाता है। सत्य मे बढ़ रहने वाला मेधावी साधक सब पापों को नष्ट कर डालता है।।
सत्य के नाम पर भी भगवान् महावीर ने एक बहुत बड़ी क्रान्ति की थी। दूसरे धर्म और दर्शन ईश्वर को प्रधानता दे रहे थे, सारे सदनुष्ठानो का केन्द्र भगवान् माना जा रहा था। साधना का लक्ष्य एकमात्र भगवान् को प्रसन्न करना था। यज्ञ, तप, स्वाध्याय, उपासना, व्रत, सदाचार की सब धार्मिक क्रियाएँ उसे रिझाने के लिए ही चल रही थी। व्यक्ति की पूजा को
P-निच्चकालऽप्पत्तण, मुसावाय-विवजण । भासियध्वं हियं सच्च, निच्चाऽऽउत्तरण दुक्करं ।।
-उत्तरा० १६/२६ २--'सच्च लोगम्मि सारभूय, गभीरतर महासमुद्दाओ।'
--प्रश्नव्याकरण ३- सच्चस्स आणाए उवहिए मेहावी मार तरइ ।'
-आचाराग ३/३/१२ ४--'सच्चस्मि धिइ कुब्बिहा, एत्थोवरए मेहावी सव्य पाव झोसइ ।'
-आचाराग ३/२/५
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६४. सन्मति-महावीर
महत्व दिया जा रहा था, और उसे प्रसन्न करने के लिए जीवन मे हजारो गलतियाँ आ गई थी। भगवान महावीर ने उस व्यक्तिपूजा को तोड कर सत्य की उपासना का महान् आदर्श जनता के सामने रखा और अपनी जोरदार भाषा मे कहा-"सत्य ही भगवान है।' वह भगवान् तो तुम्हारे मन-मन्दिर मे ही विराजमान है। अत उसी की एक निष्ठा से उपासना करो, उसी मे रत रहो, उसी मे दृढ रहो और उसी की प्राप्ति के लिए साधना करो।" __ दूसरी बात । तत्कालीन धर्म-नेताओ और सत्य-वक्ताओं ने वाणी के सत्य को ही सत्य समझ लिया था। पहली मन की और अन्तिम पाचरण की भूमिका गायब हो गई थी । सत्य, केवल वाणी पर नाच रहा था, मन और शरीर उसके प्रकाश से सूने थे। भगवान महावीर ने इस भ्रान्त विचारधारा पर भी करारा प्रहार करते हुए कहा-"सत्य का महाप्रवाह तो त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित होता है । उसकी एक धारा मन में, दूसरो वाणी पर
और तोमरो धारा शरीर मे होकर बहती है। मन, वाणी और कम की एकरूपता पर चलने वाला सत्य हो वास्तविक सत्य है। मन में सत्य का सकल्प होना, सत्य सोचना-यह मन का सत्य है। जो अन्तर्मन मे है, वही जब बाहर बोला जाता है, तो वह -पच्च सुभगव ।
-प्रश्न व्याकरण २-नणगय वयसच्चे सायसच्चे ।।
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सत्य : ६५ वाणी का सत्य है । मन ने जो सत्य का रूप लिया था, जब वह मनरूपो कुए का पानी वाणी के डोल मे आएगा, तभी वाणी का सत्य बनेगा । और जब वह मन एव वाणी का सत्य शारीरिक व्यवहार और कर्म के रूप मे ढलता है, तो वह काया का सत्य बनता है । जो क्रोध से, हास्य से, लोभ अथवा भय से-किसी भी अशुभ सकल्प से असत्य नहीं बोलता, वही सच्चा ब्राह्मण है। जहाँ ये तीनो शक्तियां कदम-से-कदम मिलाकर चलती है, वही जीवन सत्यमय, अमृतमय बनता है। जिसका मन भी सत्य का प्रकाश लेकर आत्मा की ओर दौडता है, वाणी भी ऋतम्भरा होकर आत्मा की ओर लपकती है और शरीर का प्रत्येक स्पन्दन सत्यमय होकर आत्मा की ओर गति करता है, वही सत्य का पर्ण साधक है ।२।।
केवल वाणी के सत्यवादियो को सम्बोधित करते हुए भगवान महावीर ने कहा था-"यदि तुम्हारे अन्दर क्रोध है, अभिमान है, हास्य, लोभ अथवा भय है, तो असत्य तो असत्य है ही, परन्तु उस स्थिति मे बोला गया सत्य भी असत्य ही है, क्योकि वहा अन्तर्जागरण नहीं है । क्रोध अपने आप से
१-कोहा वा जड वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुस न वयइ जो उ, त वय वूम माहए ।।
__ --उत्तरा० २५/२४ २-'मरणयय कायसुसबुडे जे स भिक्खू ।'
-दशवै० १०/७
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१२४ : सन्मति-महावीर की निर्मल धवल धाराएँ ! आत्मा मे डुबकी लगाओगे, तो पवित्र ही नही, पवित्रतम वन जाओगे । श्रात्म-शुद्धि के लिए एक इच भी इधर-तिघर जाने की आवश्यकता नहीं है । तू जह है, वही श्रात्मा में डुबकी लगा, जहां अहिंसा और ब्रह्मचर्य की अमृत गङ्गा वह रही है। "धर्म ही जलाशय है, ब्रह्मचर्य ही शान्तिदायक तीर्थ है, आत्मा की प्रसन्न लेश्याएँ ही पवित्र घाट है, उसमे स्नान करने से आत्मा विशुद्ध, निर्मल, निर्दोष होकर परम शान्ति का अनुभव करता है । "यही सच्चा स्नान है ऋषियो का महास्नान है, जिससे महर्पि लोग परम विशुद्ध होकर सिद्धिलाभ करते है, कर्म-मल को धोकर मोक्ष प्राप्त करते है ।
Listiane
१-धम्मे हरए बमे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेस । जहि सिणाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोसं ।।
-उत्तग० १२/४६ २--एय सिणारण कुसोहि दिह, महासियाणी इसिणं पसत्य । जहि सिणाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाएं पत्ते ।।
--उत्तरा० १२/४७
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साधना के नये मोड़ : १२६
का हृदय से स्वागत करता है। स्वय भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि धर्म-तत्व का निर्णय करने के लिए हम कौन-सा गज लेकर चलें, तो उन्होने परम सत्य के रहस्य को अनावरण फरते हुए तथ्य का उद्घोष किया था-"धर्म तत्त्व का विनिश्चय मनुष्य की प्रज्ञा-शुद्ध बुद्धि ही करती है। बुद्धि-तुला पर परखा हुआ सच्चा धम ही जीवन को उज्ज्वल समुञ्चल भविष्य की ओर ले जा सकता है।
१-"पवा समिक्खए धम्म, तत् तत्त-विरिणच्छियं :
उत्तरा०२३१२५
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१३४ : सन्मति-महावीर
संघ-योजना और शिष्य-परम्परा द्वारा ही भगवान महावीर ने अपना दिव्य सन्देश जन-जन तक पहुँचाने का एक सफल तथा शोक-हितैपो प्रयास किया था।
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१३८ : सन्मति महावीर
हो । जहाँ तक मै पहुँच सका हूँ, वहीं तक तुम भी पहुँच सकते हो । वीर बन सकते हो, महावीर बन सकते हो, जिन बन सकते हो । क्योकि प्रत्येक श्रात्मा मे जिनांकुर छुपा हुआ है ।"
मनुष्यता के लिए इससे बढ़ कर श्राशा का सन्देश आज तक नहीं मिला ।
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सन्मति - सन्देश
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सन्मति-सन्देश' १४७
२१-जइ वि य गिणे किसे चरे,जइ वि य भुजिय मासमन्तसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, आगता गभाय गतसो ॥
-सूत्रकृतांग २/१/६ -भले ही कोई नग्न रहे या महीने-महीने मे भोजन करे; परन्तु यदि वह माया-युक्त है, तो उसे बार-बार जन्म लेना पडेगा। २२-खरामेरासोक्खा, बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अरिणगामसोक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्सभूया, खाणी अगत्थारण उ कामभोगा ॥
-उत्तराध्ययन १४/१३ -काम-भोग क्षण-मात्र सुख देने वाले है, तो चिरकाल तक दुख देने वाले । उनमे सुख बहुत थोड़ा है, अत्यधिक दुःख-हीदुख है। मोन-सुख के वे भयकर शत्रु है, और अनर्थों को खान है। २३-तेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खता जे महाकुला। जं ने वन्ने वियाणति, न सिलोग पवेज्जए ।
-सूत्रकृताग ८/२४ -महान कुल मे उत्पन्न होकर संन्यास ले लेने से तए नहीं , हो जाता; असली तप वह है, जिसे दूसरा कोई जानता नही तथा जो कीर्ति की इच्छा से नहीं किया जाता। २४-जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न बढइ । जाविदिया न हायंति, तात्र धम्म समायरे ।।
-दशवकालिक ८/३६
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सन्मति महावीर
-जब तक वुढापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ नहीं बढती, जब तक इन्द्रियॉ हीन-अशक्त नहीं होती; तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। २५.-उपलेवो होइ भोगेस, अभोगी नोवलिप्पइ। . भोगी भमइ ससारे, अभोगी विष्पमुच्चई ॥
-उत्तराध्ययन २५/२१ -जो मनुष्य भोगी है-भोगासक्त है, वही कर्म-मल से लिप्त होता है, अभोगो लिप्त नहीं होता । भोगी संसार मे भ्रमण किया करता है और अभोगो संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। २६-अधुव जीवियं नच्चा, सिद्धिमन्ग चियाणिया । विरिणाद्देज भोगेसु, आउँ परिमिअमप्पणो ।
-दशथै ८/३४ मानव-जीवन नश्वर है, उसमे भी आयु तो परिमित है, एक मोक्ष-मार्ग ही अविचल है, यह जानकर काम-भोगो से निवृत्त हो जाना चाहिए।
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