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तीर्थङ्कर-जीवन का उच्चादर्श था।
आत्म-ज्योति को पाने के बाद उन्होंने उसे हजार-हजार हाथो से बाँटना प्रारम्भ किया--किसी इच्छा-वश नहीं, किसी जिज्ञासावश नहीं, किसी स्वार्थ-वश नहीं, किन्तु, जैन-सस्कृति को मूल भाषा के अनुसार विश्वहितङ्कर-रूप तीर्थकरत्व स्वभाव-वश आम प्रदान-अर्थ । जिसके पास जो कुछ होता है, वह उसका उत्सर्ग करता ही है । उसके पास था अमृत रस, लबालब भरा हुआ, छलकता और वहता हुत्रा । वह उसी को हर तरफ देता हुआ चला, जन-गण-मन को जगाता और उठाता हुआ चला । उसके पास था आनन्द रस, वह उसी को सव ओर सरसाता हुआ चला, उमगाता हुआ चला । उसके पास था ज्ञान रस, वह उसो को चहुँ ओर छिटकाता हुआ चला, बरसाता हुआ चला। वह सब ही को अपने समान निष्काम और प्राप्तकाम, वशी तथा स्वतत्र बनाता हुआ चला । तीस वर्ष तक निरन्तर कर्मशील रह कर वह मानव-जगत् को निष्काम कर्मयोग का सक्रिय पाठ पढ़ाता चला। ___कॉटो मे खिलकर भी वह फूल ऐसा महका कि जिससे दिदिगन्त सुरभित हो उठा । जीवन के साक्षात् अनुभवो की अमूल्य थातो प्राप्त कर जो मधुर अनुभूतियाँ उसने जन-मच पर प्रस्तुत की, । उससे भारतीय जीवन का मरुस्थल वासन्तो सुपमा से मुस्करा ठा! जीवन के सच्चे और सफल कलाकार थे। उन्होंने भारत की आमा को अन्धकार के गर्त में ठोकर खाते और कन्दन