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४२. सन्मति-महावीर
गया। गिड़गिड़ाकर महावीर के चरणों से चिपट गया, और अपनो दोन भाषा मे बोला-"भगवन् ! मुझ अपराधी का अपराध क्षमा कीजिये । मै नासमम हूँ, अज्ञानी हूँ।"
महावीर के अन्तहदय के कण-कण में अकृत्रिम प्रेम का शीतल झरना वह रहा था । अपराधी और प्राण-घातक पर भी इतना वातसल्य-माव! महावीर का रोम-रोम सहसमुख होकर घोल रहा था-'वत्स तुम्हें सन्मति प्राप्त हो। तुम्हारा कल्याण हो ।