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३६: सन्मति-महावीर
आध्यात्मिक सुख की साधना में तन्मय हो रहे थे। लौकिक विभूति के नाम पर उनके पास केवल एक देव-दुष्य वस्त्र है, वह भी अव्यवस्थित रूप से शरीर पर पड़ा हुआ है, और कुछ नहीं।
गरीबो बडी भयंकर बला है।। इसके समान संसार मे और कौन दुख होगा ? विपत्ति का मारा हुआ, गरोत्री का सताया हुआ, दरिद्रता से पिसा हुआ एक निर्धन ब्राह्मण उनके पास
आता है, और अन्तस्तल मे अवरूद्ध अपनी दुख-गाथा कहने लगता है।
"भगवन् ! आज आपके दर्शन पाकर धन्य-धन्य हो गया हूँ। कब से आपकी तलाश कर रहा हूँ ? वैशाली गया, श्रासपास के गाँवो और जङ्गालों को छान मारा; परन्तु कही पता ही न लगा । करुणानिधे मैं तो निराश ही हो चुका था । परन्तु, एक यात्री के मुख से ज्यो ही आपका पता चला, आशा को तुम होती हुई ज्योति पुनः चमक उठी।
महावीर ध्यान में थे।
"भगवन् ! आपके दान की क्या महिमा करूँ ' आपने तो दान का मेघ ही बरसा दिया। किन्तु, मैं हतभाग्य कोरा ही रहा। उन दिनों मैं दूर देशों में मारा-मारा फिर रहा था। घर
आया, तो पता चला कल्पवृक्ष सब-कुछ लुटाकर वनवासी भिनु हो गया है।"
महावीर मौन थे।