Book Title: Sanmati Mahavira
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 45
________________ सन्मति-सन्देश' १४७ २१-जइ वि य गिणे किसे चरे,जइ वि य भुजिय मासमन्तसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, आगता गभाय गतसो ॥ -सूत्रकृतांग २/१/६ -भले ही कोई नग्न रहे या महीने-महीने मे भोजन करे; परन्तु यदि वह माया-युक्त है, तो उसे बार-बार जन्म लेना पडेगा। २२-खरामेरासोक्खा, बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अरिणगामसोक्खा । संसारमोक्खस्स विपक्सभूया, खाणी अगत्थारण उ कामभोगा ॥ -उत्तराध्ययन १४/१३ -काम-भोग क्षण-मात्र सुख देने वाले है, तो चिरकाल तक दुख देने वाले । उनमे सुख बहुत थोड़ा है, अत्यधिक दुःख-हीदुख है। मोन-सुख के वे भयकर शत्रु है, और अनर्थों को खान है। २३-तेसि पि न तवो सुद्धो, निक्खता जे महाकुला। जं ने वन्ने वियाणति, न सिलोग पवेज्जए । -सूत्रकृताग ८/२४ -महान कुल मे उत्पन्न होकर संन्यास ले लेने से तए नहीं , हो जाता; असली तप वह है, जिसे दूसरा कोई जानता नही तथा जो कीर्ति की इच्छा से नहीं किया जाता। २४-जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न बढइ । जाविदिया न हायंति, तात्र धम्म समायरे ।। -दशवकालिक ८/३६

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