Book Title: Sanmati Mahavira
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 19
________________ प्राणशत्रु पर भी अमृत वर्षा : ४१ जीवन के उन नितान्त एकान्त क्षणों में वे एक सहज प्रात्म-रमण का प्रपूर्व प्रानन्द लूट रहे थे। महमा उनके समक्ष घुछ चिन्तित-सा एक ग्वाला पाकर खड़ा हो गया। और बोला-"महाराज | इस जगल मे चरते हुए आपने मेरे बेल तो नहीं देखे ?" __ महावीर ध्यान स्थिति में आत्म-विभोर हो रहे थे । अन्तर्जगत् में मौन मन्यन चल रहा था। अत उसकी बात का उत्तर भो कैस देते ? उनको मौन-मुद्रा में देखकर चाला चैलो की तलाश में श्रागे बढ़ गया। कुछ ही देर बाद वापिस लौटकर देखता क्या है कि "बल सन्त के आस-पाम ही चर रहे है और वे उसी तरह नेत्र बन्द किये खडे हैं।" यह देसकर याला अपने-आपे में न रह सका। उसका रोम-रोम क्षुब्ध हो उठा। वह चीख कर बोला--"बस, बस, मै समझ गया हूँ कि तू महात्मा नहीं, दुरात्मा है । चुराने की नीयत में बैल तूने ही कही इधर-उधर छिपाकर रख छोड़े थे। ले देख, तुझे तेरी करनो का अभी कैसा मजा चखाता हूँ ? इतना कह वह महावीर पर एक दम बरस पड़ा। लाठी, डेले और पत्थरों की अन्धाधुन्ध वर्षा होने लगी। परन्तु, महावीर अपनी शान्त-दान्त स्थिति में ध्यान-मग्न रहे । न कुछ हिले-डुले और न ही कुछ बोले-चाले । उनकी इस अपार सहिष्णुता और शान्त वृत्ति पर ग्वाला आश्चर्यचकित था। वह उनके मुखमण्डल पर अठखेलियाँ करते हुये तपस्तेज से हत-प्रभ-सा हो

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