Book Title: Sanmati Mahavira
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 25
________________ निर्वाण ७३ चुके थे और चौथा मास भी आधा बीतने पर आ गया था। कार्तिक अमावस्या को प्रभात वेला थी । स्वाति नक्षत्र का योग चल रहा था। अपना अन्तिम समय जानकर भी वे जन-कल्याण के लिए दो दिन तक निरन्तर अपनी मृत्युञ्जय वाणी को अजस्त्र धारा बहाते रहे। अपने प्रात्मस्थित ज्ञान के उजियारे से जन-मन मे जीवन-ज्योति जगाते रहे, हजार-हजार हाथो से आत्म-ज्ञान को सम्पत्ति लुटाते रहे। महावीर के निर्वाण के समय नौ मल्लि और नौ लिच्छवि-जो अट्ठारह गणराजा कहलाते थे, पौपध-व्रत किये हुए, उस ज्योतिर्मय युग-पुरुष से ज्ञान का अक्षय प्रकाश प्राप्त कर रहे थे । स्वय भगवान महावीर भी दो दिन से उपवास मे हीथे। हजारोदर्शनार्थी उस महापुरुष के दर्शनो की लालसा लिए दौड़ रहे थे । कुछ नगर से बाहर सडको पर तेज रफ्तार से चले आ रहे थे, कुछ नगर को गलियों मे भाग रहे थे, कुछ उनका चरण-स्पर्श करने के लिए अपने हाथो को आगे बढ़ा रहे थे, इतने ही मे जीवन की चरम सास मे भी ज्ञान के प्रकाश की किरणें विकीर्ण करती हुई वह महाज्योति लोक-लोचनो से हमेशा के लिए ओझल हो गई। उनकी इस महायात्रा को जैन-भाषा मे निर्वाण या परिनिर्वाण कहते है । निर्वाण का अर्थ है पूर्णत अात्म-शान्ति । हमेशा के लिए मृत्यु पर विजय ! मौत को भी मौत !! सदा-सर्वदा के लिए अक्षय अजरअमर पद की प्राप्ति ।

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