Book Title: Sanmati Mahavira
Author(s): Sureshmuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ भोग में मन न रस सका : २३ का अनुभव कर रही थी। जब वे बाह्य सुख-साधनो पर दृष्टिपात करते, तो उनकी अन्तरात्मा पुकार उठती-"सच्चे , सुख का मार्ग तो कोई और ही है। यदि यह वैभव-विलास सुखदायी होता, तो आज संसार का जीवन दुख की जिन्दा तसवीर क्यों होता ? भारत का सामाजिक, नैतिक एव धार्मिक पत्तन उन्हें बेचैन किये हुए था। जब ये अपने चारो ओर की दुनिया पर एक समीक्षात्मक दृष्टि डालते, तो देखते कि संसार मे सब ओर एक गहरा अन्धकार परिव्याप्त है और मानवसमुदाय अपनी क्षुद्र वासनाओ की तृप्ति के फेर में पड़कर दूसरे प्राणियो के प्राणों के साथ खिलवाड कर रहा है। धर्म के नाम पर खुले आम हिसा-राक्षसी का नगा नाच हो रहा है। जिससे सर्वत्र हाहाकार का आर्तनाद सुनाई पड़ रहा है । यत्र-तत्र सर्वत्र स्वार्थ का खेल खेला जा रहा है। यह सब देखकर महावीर को जवानी विद्रोह कर उठी। उनके विचारो में उथल-पुथल मच गई और आखिर, उन्होने ढ़ निश्चय कर ही लिया कि-"कुछ भी हो, मुझे इस समस्त संसार से ऊपर उठना है और जगलो को भी इस दु.ख से उबारना है। संसार में सुख-शान्ति और साम्य-भाव की गगा वहानी है । लेकिन, उसके लिए सर्वप्रथम मुझे स्वयं आत्म-बल प्राप्त करना है।"

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