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३२] संक्षिप्त जैन इतिहास। . थी। यह लोग अलगर रंगके कपड़े और सुन्दर बहुमूल्य आभूषण पहिनते थे। उनकी घोड़ेगाड़ियां सोनेकी थीं। हाथीकी अम्बारी सोनेकी थीं और पालकी भी सोनेकी थीं। इससे उनके विशेष समृद्धिशाली और पूर्ण सुख सम्पन्न होने का पता चलता है। किन्तु ऐसी उच्च ऐहिक अवस्था होते हुये भी वे विलासिताप्रिय नहीं थे। उनमें व्यभिचार छूता भी नहीं गया था। उन्हें स्वाधीनता बड़ी प्रिय थी। किसी प्रकारकी भी पराधीनता स्वीकार करना, उनके लिये सहन कार्य नहीं था।
भगवान महावीर उनके साथी और नागरिक ही थे, जिन्होंने प्राणी मात्रकी स्नाधीनताका उच्च घोष किया था । भला जब उनके मध्यसे एक महान् युगप्रधान और अनुपम तीर्थङ्करका जन्म हुआ था, तब उनके दिव्य चारित्र और अद्धत उन्नतिके विषयमें कुछ अधिक कहना व्यर्थ है । हिंसा, झूठ. चोरी आदि पापोंका उनमें निशान नहीं था। वे ललितकला और शिल्पको खूब अपनाते थे। उनके महल और देवमंदिर अपूर्व शिल्पकार्यके दो दो और तीन तीन मंनिलके बने हुये थे। वे तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें विद्याध्ययन करनेके लिये जाते थे।
यद्यपि लिच्छवि लोगोंमें यक्षादिकी पूना पहलेसे प्रचलित लिच्छवि क्षत्री थी; परन्तु जैनधर्म और बौद्ध धर्मकी गति भी. जैनधर्मके परम उनके मध्य कम न थी। जैनधर्मका अस्तित्व
उपासक थे। उनके मध्य भगवान महावीरके बहुत पहलेसे । था। भगवान महावीरके पिता राना सिद्धार्थ और उनके मामा राजा
१-भम पृ०.५७-६३ । २-पर रमेशचंद्र दत्तका "भारत वंशकी सभ्य वाका इतिहास"-भम. पृ०६५क्षत्री फ्लैन्न०, पृ० ८२ व फैदिइ० पृ०१५७।.