Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 306
________________ “२८४] संक्षिप्त जैन इतिहास । 'अक्ट होता है। चीन आदि एशियावर्ती देशोंमें चौद्धधर्मका प्रचार अशोरके बाद हुआ था और इन देशोंमें अशोकने अपने कोई धर्मोपदेशक नहीं भेजे थे | अतः मध्याऐशिया, चीनं भादि देशोंमें बौद्धधर्मके चिन्ह मिलने के कारण यह नहीं कहा जाता • कि अशोकने उन देशोंमें बौद्धधर्मका प्रचार किया था। 'महावंश में 'लिखा है कि अशोकका पिता ब्राह्मणोंका उपासक था; किन्तु बौद्धग्रंथोंके इस उल्लेख मात्रसे बिन्दुमार और अशोकको ब्राह्मण मान लेना भी ठीक नहीं है; अब कि हम उनकी शिक्षाओंमें प्रगटतः 'बाह्मण मान्यताओं के विरुद्ध मतोंकी पुष्टि और उनकी अवहेलना हुई देखते हैं। . इस प्रकार मालम यह होता है कि यद्यपि अशोक प्रारम्भमें अशोकका श्रद्धान अपने पितामह और पिताके समान जैनधर्मका जैन तस्वीपर अन्त मात्र श्रद्धानी था, किन्तु जैनधर्मके संसर्गसे समय तक था। उसका हृदय कोमल और दयालु होता जारहा 'था। यही कारण है कि कलिंग विजयके उपरांत वह श्रावक हो गया और अब यदि वह ब्राह्मण होता तो कदापि यज्ञोंका निषेध न करता। वह स्पष्ट कहता है कि उसे 'बोधी' की प्राप्ति हुई है। नो जैनधर्ममें आत्मकल्याणमें मुख्य मानी गई है। यद्यपि अशोकने अपने शेष जीवन में उद्धारवृत्ति--ग्रहण कर ली थी और समान -मावसे वह सव सम्प्रदायोंका आदर और दिनय करने लगा था। किन्तु उसकी शिक्षाओंमें ओरसे छोर तक जेनसिद्धांतों का समावेश और उनका प्रचार किया हुआ मिलता है। उनका सप्तम स्तम्भ १-भया० पृ० १८६-२०२। २-महावंश पृ० १५ । - -

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