Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 311
________________ मौर्य साम्राज्य। __ [२८९ अशोकके पोते संप्रतिने अपने पितामहके इस प्रचार कार्यका पुनरुद्धार किया था और उन्होंने प्रगटतः जैनधर्मका प्रचार भारतेतर देशोंमें किया था। यदि मुनि कल्याण और फिर सम्राट अशोक अपने उदाररूपमें उन धर्मसिद्धांतोंका, जो सर्वथा जैन धर्मानुकूल थे, प्रचार न करते, तो संपतिके लिये यह सुगम न था कि वह जैन धर्मका प्रचार और जैन मुनियों का विहार विदेशोंमें करा पाता । इस देशोंमें अशोचने अपने धर्मप्रचार द्वारा जैनधर्मकी नो सेवा की है वह कम महत्वकी नहीं है। उन्हें उसमें बड़ी सफलता मिली थी। उसे वे बड़े गौरवके साथ 'धर्मविनय' कहते हैं।' सम्राट अशोकने अपनी धर्म शिक्षाओंको बड़ीर शिकाओं अशोकके शिलालेख व और पाषाण स्तम्भोंपर अंकित कर दिया शिल्पकार्य। था। उनके यह शिलालेख आठ प्रकार के माने गये हैं-(१) चट्टानों के छोटे शिलालेख नो संभवतः २५७ ई० पू० से प्रारम्भ हुए केवल दो हैं, (२) भाबूका शिलालेख भी इसी समयका है, (३) चौदह पहाड़ी शिलालेख संभवतः १३ या १४ वर्षके हैं; (४) कलिङ्गके दो शिलालेख संभवतः २५६ ई० पू० में अंकित कराये गये; (५) तीन गुफा लेख; (६) दोत. राईके शिलालेख (२४९ ई० पू०), (७) सात स्तम्भोंके लेख छै पाठोंमें हैं (२४३ व २४२ ई० पू०) और (८) छोटे स्तम्भोंके लेख (२४० ई० पू०)। इन लेखोंमसे शाहबाज और मानसहराके लेख तो खरोटीमें और बाकी उस समयकी प्रचलित ब्राह्मी . १-परि० पृ० ९४ व सं० प्रागैस्मा० १० १७९ १२-अध० पृ. २१२-त्रयोदश शिलालेख । ३-लामाह. पृ० १७३।

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323