Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 317
________________ मौर्य साम्राज्य | [ २९५ थी | मालूम नहीं इस गणना में कहांतक तथ्य है ! किंतु वर्तमान जैन मंदिरोंमें बहुत ही कम ऐसे मिलते हैं, जिनको लोग संप्रतिका बनवाया हुआ मानते हों। राजपूताना और गुजरात में इन मंदिरोंकी संख्या अधिक बताई जाती है; परन्तु अभीतक कोई भी ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं मिला है, जिससे इन मंदिरोंको संप्रति द्वारा निर्मित स्वीकार किया जा सके । वह सब मंदिर संप्रतिसे बहुत पोछेके बने हुये प्रगट होते हैं | (राइ० भा० १ ४० ९४) जो हो, यह स्पष्ट है कि संप्रतिने धर्म प्रभावनाचा खास उद्योग किया था और उन्होंने जैन उपदेशक देश विदेशमें भेजे थे। वहांके निवासियोंको जैनधर्म में दीक्षित कराया था।' 'तीर्थकल्प' से प्रकट है कि उन्होंने अनार्य देशों में भी विहार (मंदिर) बनवाये थे । ( राइ० भा० १ ८० ९४ ) दुःख है कि अशोककी तरह संप्रतिके कोई भी लेख मादि नहीं मिलते हैं, जिससे उनके धर्मप्रभावक सुकृत्यों का पता चल सके । तो भी जैनधर्मके लिये संप्रति दूसरे कान्स टिन्टायन थे । उनने सौ वर्षकी आयु तक जैनधर्म और राज्यसेचन करके 1 स्वर्गसुख काम किया था | J दिगम्बर जैन ग्रंथों में राजा संप्रतिका कोई उल्लेख देखने को संप्रति और उसके नहीं मिलता है। संप्रतिके परपितामह समयका जैन संघ । सम्राट् चंद्रगुप्तका उल्लेख दोनों ही संप्र १ - जैसा सं० भा० १ वीरवंश पृ० ८ । २- परि० पृ० ९४, जैसासं● भा० १ वीरवंश पृ० ९ व पाटलीपुत्र कल्पन्य; यथा: - "कुणालस्तुखिमंडभरताधिपः परमाईतो, अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितः श्रमण विहारः सम्प्रति महाराजोऽभवद "

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