Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 292
________________ २७०] संक्षिप्त जैन इतिहास । (१३) अपासिनवे (अपासव) शब्दका प्रयोग द्वितीय स्तम -लेखमें पापरूपमें हुआ है। जैनधर्ममें आस्रव शुभ और अशुभ ही माना गया है। अशुम अथवा अप आसत्र पाए कहा गया है। (१४) आसिनद नो 'आसव' शब्दका अपभ्रंश है तृतीय स्तम्भ लेखमें व्यवहृत हुआ है। मैन शब्द ' अण्हय', और यह दोनों एक ही धातुसे बने हैं। यह और मानव शब्द समानवाची हैं। आस्रव शब्द बौद्धों द्वारा भी व्यवहृत हुआ है; किन्तु अशोच्ने इस शब्दका व्यवहार उनके भावमें नहीं किया है। खास बात यहां दृष्टव्य यह है कि इस स्तंभलेखमें आलब (आसिनर ) के साथर अशोकने पापका भी उल्लेख किया है। डॉ भांडारकर कहते हैं कि बौद्ध दर्शनमें पाप और मानव, ऐसे दो भेद नहीं हैं। उनके निकट पाप शब्द आसवका द्योतक है । किन्तु जैनधर्ममें पाप अलग माने गये हैं और आस्रव उनसे भिन्न बताये गये हैं। कषायोंके वश होकर याप किये जाते और मानवका संचय होता है। क्रोध, मान, म.या, लोम रूप चार कषाय हैं । अशोक क्रोध और मानका उल्लेख पापासबके कारण रूपमें करता है । अशोकनी ईर्ष्या जैनोंके द्वेष था ईर्ष्याके समान हैं । चंडता और निष्ठुरता जैनों की हिंसाके । अन्तर्गत समिष्ट होते हैं। यह पाप और आस्रवके कारण है। इस प्रकार अशोक यहां भी बौद्ध या किसी अन्य धर्मके सिद्धांतों और पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार न करके जैनोंके सिद्धान्त और उनके पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग कर रहा है। " १-तत्वार्थधिगमसूत्र,:पृ० १२४ । २-इपीप्रफिया इण्डिया मा० २ ' पृ० २५०। ३-भाभशो 'पृ..१२६-१२७ ॥

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