Book Title: Samyak Achar Samyak Vichar Author(s): Gulabchandra Maharaj, Amrutlal Publisher: Bhagwandas Jain View full book textPage 5
________________ = सम्पादकीय धर्म के क्षेत्र में मानव मात्र को समान अधिकार है, जाति कुल भादि धर्मपालन में बाधक नहीं। धर्म की शीतल छाया सब को सुलभ हो। धर्म मात्मा का गुण है। सदाचरण और मद्ज्ञान उसके प्रमुख अंग हैं। उनका विकास मानव में किस प्रकार हो, कैसे उसका कल्याण हो, यही लक्ष सामने रखकर श्रीमद् तारण स्वामी जी ने सम्यक् प्राचार को प्रकट करने वाले ग्रंथ श्री श्रावकाचार और सम्यक विचार को प्रकट करने वाले प्रथ श्री मालारोहण, पाहन पूजा, और कमल बत्तीसी की रचना की और इन्हीं सबका सामूहिक उपनाम 'सम्यक् आचार : मम्यक् विचार' है । सम्यक् आचार और सम्यक् विचार परस्पर अवलपित हैं। धर्म की व्याख्या में निश्चय और व्यवहारनय है। निश्चय के अभाव में व्यवहार केवल शुष्क क्रियाकांड मात्र है, अभीष्ट सिद्धि के लिए एक अकेला ही पर्याप्त नहीं। सद्गृहस्थ और मुनि के धार्मिक विचारों में अन्तर ही केवल यह है कि सद्गृहस्थ अपने धर्माचरण में निश्चय विचारों की गौणता रखता है और मुनि अपने धर्माचरण में निश्चय विचारों की प्रधानता रखते हैं। तात्पर्य यह कि एक के बिना दूसरा पंगु है। स्वामी जी ने सम्यक् आचार और सम्यक विचार की एकता का पद-पद पर दिग्दर्शन कराया है। अपनी रचनाओं में "अध्यात्मवाद" के माग को प्रशस्त किया है। तत्वदर्शी महान् प्राचार्यों ने यही तो बताया था कि चंतन और जड़ दो भिन्न हैं। चेतन के उपासक को अन्तरात्मा और जड़ के उपामक को बहिरात्मा कहा है । स्वामी जी ने सम्बोधन किया, भव्यो ! भटकते क्यों हो ? मूल लक्ष्य की ओर चलो, आत्मा की उपासना करो, उसो में तुम्हारा कल्याण निहित है । श्री 'चंचल' जी ने उपरोक्त प्रथों का ( जिनकी भाषा सम्कृन-प्राकृत मिश्रित अपने प्रकार की एक विशिष्ट शैली की है) जन-साधारण के ज्ञानलाभार्थ सरन और ललित पद्यों में अनुवाद किया है, बहुत सुन्दर एवं हृदयस्पर्शी है । ग्रंथ की भूमिका में प्रसिद्ध विद्वान डॉ० हीरालाल जी जैन डायरेक्टर वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजफ्फरपुर ( विहार ) ने मार्मिक विवेचन करते हुए प्रकट किया है कि श्री तारण स्वामी जी के सिद्धान्त जैन धर्म के मूल स्वरूप को बताने वाले हैं, और उनके द्वारा की गई कांति समयानुकूल और धर्म के प्रति फैली हुई क्रांति की उन्मूलक था। ____सागर निवासी तीर्थभक्त, समाजभूषण श्रीमान् सेठ भगवानदास जी शोभालाल जी ने ग्रंथ को उपयोगिता समझकर बगभग ६०००) व्यय करके १००० प्रतियां प्रकाशित करवाई है । मानव कल्याण के लिए जिन्होंने जो कुछ किया है वे सभी अभिनंदनीय हैं । हितैषी- गुलाबचन्द ।Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 353