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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ९७ मिथ्यादृष्टि है। इस निरुक्ति से भी पूर्वं ग्रह्या जो अतत्त्वश्रद्धान, ताका सर्वथा त्याग बिना, तीहिं सहित ही तत्त्व श्रद्धान हो है । जाते तैसै ही सभवता प्रकृति का उदयरूप कारण का सद्भाव है।
सो संजमं ण गिण्हदि, देसजमं वा रण बंधदे आउं । सम्मं वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि रिणयमेण ॥२३॥ स संयम न गृह्णाति, देशयम वा न बध्नाति आयुः । सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं, वा प्रतिपद्य म्रियते नियमेन ॥२३॥
टीका - सो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है, सो सकलसंयम वा देशसयम को ग्रहण कर नाही, जातै तिनके ग्रहण योग्य जे करणरूप परिणाम, तिनिका तहां मिश्रगुणस्थान विर्ष असंभव है । बहुरि तैसे ही सो सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव च्यारि गति । संबंधी आयु की नाही बाधै है । बहुरि मरणकाल विष नियमकरि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को छोडि, असंयत सम्यग्दृष्टीपना को वा मिथ्यादृष्टीपना को नियमकरि प्राप्त होइ, पीछे मरै है। - भावार्थ - मिश्रगुणस्थान ते पंचमादि गुणस्थान विष चढना नाही है। बहुरि तहां आयुबध वा मरण नाही है ।
सम्मत्तमिच्छपरिणामसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य रण मिस्सम्मि ॥२४॥२ सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिणामेपु यत्रायुष्क पुरा बद्धम् । तत्र मरणं मरणांतसमुद्घातोऽपि च न सि ॥२४॥
टीका - सम्यक्त्वपरिणाम अर मिथ्यात्वपरिणाम इनि दोऊनि विष जिह परिणाम विषै पुरा कहिए सम्यग्मिथ्यादृष्टीपनाको प्राप्ति भए पहिले, परभव का आयु बंध्या होइ, तीहि सम्यक्त्वरूप वा मिथ्यात्वरूप परिणाम विष प्राप्त भया ही जीव का मरण हो है, असा नियम कहिए है। बहुरि अन्य केई आचार्यनि के
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४१, गाथा ३३ २. षट्खडागम - घवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४६ गाथा ३३ एव पुस्तक ५, पृष्ठ ३१ टीका.