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सम्बगहानवनिका भाषाटोका ]
[ ३१५ तिण्णिसयसठिविरहिद, लक्खं दशमूलताडिदे मूलं । णवगुणिदे सठिहिदे, चक्खुप्फासस्स अद्धारणं ॥१७०॥ त्रिशतषष्टिविरहितलक्षं दशमूलताडिते मूलम् ।
नवगुणिते षष्टिहते, चक्षुःस्पर्शस्य अध्वा ॥१७०॥ टीका - सूर्य का चार ( भ्रमण ) क्षेत्र पांच सै बारा योजन चौडा है, तामै एक सै अस्सी योजन तौ जबद्वीप विष है। अर तीन सै बत्तीस योजन लवण समुद्र विष है । सो जब सूर्य श्रावण मास कर्कसंक्रांति विर्ष अभ्यंतर परिधि विषै आवै, तब जंबूद्वीप का अन्त सौ एक सौ अस्सी योजन उरै भ्रमण कर है, सो इस अभ्यंतर परिधि का प्रमाण कहै हैं - लाख योजन जंबूद्वीप का व्यास में सौ दोनों तरफ का चार क्षेत्र का परिमाण तीन से साठि योजन घटाया, तब निन्याणवै हजार छ सै च्यालीस योजन व्यास रह्या । याका परिधि के निमित्त 'विक्खंभवग्गदहारण' इत्यादि सूत्र अनुसारि याका वर्ग करि ताकौं दश गुणा कहिए, पीछे जो परिमारण होइ, ताका वर्गमूल ग्रहण कीजिए, यों करते तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी योजन प्रमाण याका परिधि भया, सो दोय सूर्यनि की अपेक्षा साठि मुहूर्त में इतने क्षेत्र विर्षे भ्रमण होइ, तौ अभ्यंतर परिधि विर्षे दिन का प्रमाण अठारह मुहूर्त, सो मध्याह्न समय सूर्य मध्य आवै तब अयोध्या की बराबर होइ; तातै नौ मुहर्त मै कितने क्षेत्र में भ्रमण होइ, असे त्रैराशिक करना। इहां प्रमाणराशि साठि (६०), फलराशि (३ १५,०८६), इच्छाराशि ६ स्थापि, उस परिधि के प्रमाण को नौ करि गणे, साठि का भाग दीजिए, तहां लब्ध प्रमाण सैतालीस हजार दोय सै त्रैसठि योजन अर सात योजन का वीसवां भाग इतना चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र जानना ।
__ भावार्थ याका यह है- जो अयोध्या का चक्री अभ्यंतर परिधि विषै तिष्ठता सूर्य को इहातै पूर्वोक्त प्रमाण योजन पर देखै है । तातै इतना चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र कह्या है।