Book Title: Samyag Gyan Charitra 01
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust
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सम्पमानवन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ७३७ टीका - ज्ञानमार्गणा विष कुमति, कुश्रुत अज्ञान दोऊ स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सासादनपर्यंत है । तातै तहा गुणस्थान दोय, अर जीवसमास चौदह हैं.। बहुरि विभगज्ञान संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी आदि सासादन पर्यत जानना; ताते गुणस्थान दोय अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है। - सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छट्ठगादि मरणपज्जो। खीणकसायं जाव दु, केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥६८८॥
सद्ज्ञानत्रिकमविरतसम्यगादि षष्ठकादिमनःपर्ययः ।
क्षीरणकषायं यावत्तु, केवलज्ञानं जिने सिद्ध ॥६८८॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत हैं; तातै गुणस्थान नव अर जीवसमास सैनी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय जानने । बहुरि मनःपर्ययज्ञान छट्ठा ते क्षीणकषाय पर्यंत है; तात गुणस्थान सात अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है । मन पर्ययज्ञानी के आहारक ऋद्धि न होइ; तातै प्राहारक मिश्र अपेक्षा भी अपर्याप्तपना न संभव है। बहुरि केवलज्ञान सयोगी, अयोगी अर सिद्ध विर्ष है; तातै गुणस्थान दोय, जीवसमास सैनी पर्याप्त अर सयोगी की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय जानने ।।
अयदो त्ति हु अविरमणं, देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छठ्ठादि थूलो त्ति ॥६८६॥ सहमो सुहमकसाये, संते खीरणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गणभेदा, सिद्धे रणत्थिति णिद्दिढें ॥६६०॥ जुम्म ।
अयत इति अविरमणं, देशे देशः प्रमत्तेतरस्मिन् च । परिहारः सामायिकश्छेदः षष्ठादिः स्थूल इति ॥६८९॥ सूक्ष्मः सूक्ष्मकषाये, शांते क्षीणे जिने यथाख्यातम् ।
संयममार्गणा भेदाः, सिद्धे न संतीति निर्दिष्टम् ॥६९०॥ टीका - संयममार्गणा विषे असंयम है, सो मिथ्यादृष्टयादिक असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विष है । तहां जीवसमास चौदह है । बहुरि देशसंयम एकदेश

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