Book Title: Samyag Gyan Charitra 01
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 716
________________ 256 ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 732-34 गुणजीव ठाणरहिया, सण्णापज्जत्तिपाणपरिहीणा / सेसणवमग्गणूणा, सिद्धा सुद्धा सदा होंति // 732 // गुणजीवस्थानरहिताः, संज्ञापर्याप्तिप्रारणपरिहीनाः / शेषनवमार्गरणोनाः, सिद्धाः शुद्धाः सदा भवंति / / 732 / / टीका - चौदह गुणस्थान वा चौदह जीवसमासनि करि रहित हैं। वहरि च्यारि संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राणनि करि रहित है। बहुरि सिद्ध गति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, अनाहार इनि बिना अवशेष नव मार्गणानि करि रहित है / असे सिद्ध परमेष्ठी द्रव्यकर्म भावकर्म के प्रभाव ते सदा काल शुद्ध है / णिक्खेवे एयत्थे, णयप्पमारणे णिरुत्तिअणियोगे। मग्गइ वीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसब्भावं // 733 / / निक्षेपे एकार्थे, नयप्रमाणे निरुक्तयनुयोगयोः / मार्गयति विशं भेदं, स जानाति आत्मसद्भावम् // 733 // टीका - नाम, स्थापना, द्रव्य, भावरूप च्यारि निक्षेप बहुरि प्राणी, भूत, जीव, सत्व इनि च्यारयोनि का एक अर्थ है, सो एकार्थ / बहुरि द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नय; बहुरि मतिज्ञानादिरूप प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण, बहुरि जीव है, जीवैगा, जीया असा जीव शब्द का निरुक्ति / बहुरि "किं कस्स केण कवि केवचिरं कतिविहा य भावा" कहा ? किसके ? किसकरि ? कहां ? किस काल'? के प्रकार भाव है। असे छह प्रश्न होते निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान इन छहों तें साधना, सो यह नियोग असें निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति, नियोगनि विर्षे जो भव्य जीव गुणस्थानादिक बीस प्ररूपणा रूप भेदनि कौं जान है, सो भव्य जीव आत्मा के सत-समीचीन भाव को जाने है / अज्जज्जसेण-गुरणगणसमूह-संधारि अजियसेणगुरू / भुवणगुरू जस्स गुरू, सो रायो गोम्मटो जयदु // 734 // .

Loading...

Page Navigation
1 ... 714 715 716