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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८४ बहुरि सज्वलन क्रोधादिक है, ते सकल कषाय का अभावरूप यथाख्यात चारित्र को घाते है; जातै 'सं' कहिए समीचीन, निर्मल यथाख्यात चारित्र, ताको 'ज्वलंति' कहिए दहन करै, तिनको संज्वलन कहिए। इस निरुक्ति ते संज्वलन का' उदय होते सतै भी सामायिकादि अन्य चारित्र होने का अविरोध सिद्ध हो है।
___असा यह कषाय. सामान्यपन-एक प्रकार है। विशेषपनै अनतानुबंधी; अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन भेद तैःच्यारि प्रकार हैं। बहुरि इनके एकएक के क्रोध, मान, माया, लोभ करि च्यारि-च्यारि भेद कीजिए तब सोलह प्रकारहो है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभा; संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ असे सोलह भेद भएं।
बहुरि उदय स्थानको के विशेष की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण है, जाते कपायनि का कारणभूत जो चारित्रमोह, ताकि प्रकृति के भेद असंख्यात लोक प्रमाण
सिल-पुढवि-भेद-धूली-जल-राइ-समाणो हवे कोहो । पारय-तिरिय-परामर-गईसु उप्पायओ कमसो १ ॥२४॥ शिलापृथ्वीभेदधूलिजलराशिसमानको भवेत् क्रोधः । नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादकः क्रमशः ॥२८४॥
टोका-शिला भेद, पृथ्वी भेद, धूलि रेखा, जल रेखा समान क्रोध कषाय सो अनुक्रम तै नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विर्ष जीव को उपजावन हारा है । सोई कहिए है
जैसे शिला, जो पाषाण का भेद खंड होना, सो बहुत घने-काल गए बिना मिले नाही; तैसे वहुत घने काल गए बिना क्षमारूप मिलन को न-प्राप्त होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीए क्रोध, सो जीव को नरक गति विष उपज़ा है ।
बहुरि जैसे पृथ्वी का भेद-खंड होना, सो घने काल गएं बिना मिले नाही, तैसै घने काल गए विना, जो क्षमारूप मिलने को न प्राप्त होइ असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं क्रोध, सो जीव को तिर्यंच गति विष उपजावै है।
१ पट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. ३५२, गा. स. १७४.