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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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का उत्कृष्ट अंश अर नील का जघन्य अंश है । अंजना चौथी पृथ्वी विषे नील का मध्यम अंश है । अरिष्टा पांचवी पृथ्वी विषे नील का उत्कृष्ट अश है, अर कृष्ण का जघन्य अंश है । मघवी पृथ्वी विषं कृष्ण का मध्यम अंश है । माघवी सातवी पृथ्वी विषै कृष्ण का उत्कृष्ट अंश है ।
र - तिरियाणं श्रोघो, इगि विगले तिण्णि चउ असण्णिस्स । सण्णि-पुण्णग-मिच्छे, सासणसम्मे वि असुह-तियं ॥ ५३० ॥
नरतिरश्वामोघः एकविकले तिस्रः चतस्र प्रसंज्ञिनः । संत्यपूर्णक मिथ्यात्वे सासादनसम्यक्त्वेऽपि अशुभत्रिकम् ॥५३०॥
टीका • मनुष्य अर तियंचनि के 'प्रोघ' कहिए सामान्यपने कही ते सर्व छह लेश्या पाइए है । तहां एकेंद्री अर विकलत्रय इनकै कृष्णादिक तीन अशुभ लेग्या हि पाइए है । बहुरि असैनी पचेद्री पर्याप्तक कैं कृष्णादि च्यारि लेश्या पाइए हैं, जाते असैनी पचेद्री कपोत लेश्या सहित मरे, तौ पहिले नरक उपजै । तेजो लेश्या सहित मरे, तौ भवनवासी अर व्यतर देवनि विषै उपजै । कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या सहित मरे, तौ यथायोग्य मनुष्य तिर्यंच विषै उपजे, तातै ताके च्यारि लेश्या है । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्तक तियंच वा मनुष्य मिथ्यादृष्टी बहुरि अपि शब्द तं सैनी लब्धि पर्याप्त तियंच - मनुष्य मिथ्यादृष्टी, वहुरि सासादन गुणस्थानवर्ती निर्वृति अपर्याप्त तिर्यच वा मनुष्य वा भवनत्रिक देव इनिविपं कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या ही है । तियंच पर मनुष्य जो उपशम सम्यग्दृष्टी होइ, तार्क प्रति सक्लेश परिणाम होइ, तौ भी देशसयमीवत् कृष्णादिक तीन लेश्या न होइ । तथापि जो उपशम सम्यक्त्व की विराधना करि सासादन होइ, ताकै अपर्याप्त श्रवम्या पिं तीन अशुभ लेश्या ही पाइए है ।
भोगापुण्णगसम्म, काउस्स जहण्णि यं हवे णियमा । सम्मे वा मिच्छे वा, पज्जत्ते तिण्णि सुहलेस्सा ॥ ५३१ ॥
भोगाऽपूर्णकसम्यक्त्वे, कापोतस्य जघन्यकं भवेन्नियमात् । सम्यक्त्वे मिथ्यात्वे वा, पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः ॥ ५३१ ॥ भोग भूमि विषै निर्वृति अपर्याप्त मम्यष्ट
टीका लेश्या का जघन्य अश पाइए है । जातं कर्मभूमिया मनुष्य वा नियं पहिले म
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