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[गोमपटसार जीवकानु गाया ४३७ ४३८
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ततो लांतवकल्पप्रभृतिसर्वार्थसिद्धि पर्यंतम् ।
किंचिदूनपल्यमानं, कालप्रमाणं यथायोग्यम् ॥४३६।। टोका - सौधर्म ईशानवालों के अवधि का विषयभूत काल असंख्यात कोडि वर्ष प्रमाण है । बहुरि तातै ऊपरि सनत्कुमारादि चारि स्वर्गवालो के यथायोग्य पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । बहुरि तातै ऊपरि लावत आदि सर्वार्थसिद्धि पयंतवालों के यथायोग्य किछू घाटि पल्य प्रमाण है।
जोइसियंताणोहीखत्ता उत्ता ण होंति घणपबरा। कप्पसुराणं च पुणो, विसरित्थं आयवं होदि ॥४३७॥
ज्योतिष्कांतानामवधिक्षेत्राणि उक्तानि न भवंति धनप्रतराणि ।
कल्पसुराणां च पुनः , विसदृशमायतं भवति ॥४३७॥ टोका - ज्योतिषी पर्यंत जे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी असे तीन प्रकार देव, तिनकै जो अवधि का विषयभूत क्षेत्र कह्या है; सो समचतुरस्त्र कहिए बरोबरि चौकोर घनरूप नाही है । जाते सूत्र विष लंबाई, चौड़ाई, उचाई समान नाही कही है, याही ते अवशेष रहे मनुष्य, नारकी, तिर्यच तिनि के जो अवधि का विषयभूत क्षेत्र है; सो बरोबरि चौकोर घनरूप है। अवधिज्ञानी मनुष्यादिक जहां तिष्ठता होइ, तहातै अपने विषयभूत क्षेत्र का प्रमाणपर्यंत चौकोररूप धन क्षेत्र को जानें है। बहुरि कल्पवासी देवनि के जो अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र है, सो विसदृश आयत कहिए लंबा बहुत, चौडा थोडा जैसा आयतचतुरस्र जानना ।।
चितियचितियं वा, श्रद्धं चितियमणेयभेयगयं । मणपज्जवं ति उच्चइ, जं जाणइ तं खु परलोए ॥४३८॥
चितितचितितं वा, अधं चितितमनेक भेदगतम् ।
मनः पर्यय इत्युच्यते, यज्जानाति तत्खलु नरलोके ॥४३॥ टीका - चितितं कहिए अतीत काल मे जिसका चितवन कीया पर अचितितं कहिए जाको अनागत काल विष चितवेगा अर अर्धाचतितं कहिए जो संम्पूर्ण चितया नाही । असा जो अनेक भेद लीए, अन्य जीव का मन विष प्राप्त हुवा अर्थ ताकौं जो जाने, सो मनः पर्यय कहिए । मनः कहिए अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप