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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] निकट ही कथन है । तातै इहां अवशेष रहे सत्य-अनुभय, तिनि का ही ग्रहण करना। बहुरि आवरण का मंद उदय होते असत्यपना की उत्पत्ति नाही हो है । तातै असत्य वा उभय मनोयोग पर वचनयोग का मुख्य कारण आवरण का तीव्र अनुभाग का उदय जानना । इसह विष इतनां विशेष है, तीव्रतर आवरण के अनुभाग का उदय असत्य मन-वचन को कारण है। पर तीव्र आवरण के अनुभाग का उदय उभय मन-वचन को कारण है।
इहां कोऊ कहै कि असत्य वा उभय मन-वचन का कारण दर्शन वा चारित्र मोह का उदय क्यौ न कहौ ?
ताका समाधान - कि असत्य अर उभय मन, वचन, योग मिथ्यादृष्टीवत् असंयत सम्यग्दृष्टी के वा सयमी के भी पाइए । तातै तू कहै सो बन नाही । तातै सर्वत्र मिथ्यादृष्टी आदि जीवनि के सत्य-असत्य योग का कारण मंद वा तीव्र आवरण के अनुभाग का उदय जानना । केवली के सत्य-अनुभय योग का सद्भाव सर्व
आवरण के अभाव ते जानना । प्रयोग केवली के शरीर नामा नामकर्म का उदय नाही । तातै सत्य अर अनुभय योग का भी सद्भाव नाही है ।
इहां प्रश्न उपजै है कि-केवली के दिव्यध्वनि है, ताकै सत्य-वचनपना वा अनुभय वचनपना कैसै सिद्धि हो है ?
ताको समाधान-केवली के दिव्यध्वनि हो है; सो होते ही ती अनक्षर हो है; सो सुनने वालों के कर्णप्रदेश को यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यंत अनक्षर ही है । तातै अनुभय वचन कहिए । बहुरि जव सुनने वालों के कर्ण विष प्राप्त हो है; तब अक्षर रूप होइ, यथार्थ वचन का अभिप्राय रूप संशयादिक को दूर कर है। ताते सत्य वचन कहिए । केवली का अतिशय करि पुद्गल वर्गणा तैसे ही परिणमि जांय है।
आगे सयोग केवली के मनोयोग कैसे संभव है ? सो दोय गाथानि करि कहै है -
मरासहियाणं वयणं, दिळं तप्पुवमिदि सजोगम्हि । उत्तो मरणोवयारेणिदियणाणेण होणम्मि ॥२२८॥