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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११४
बहुरि एक साधारण जीव के कर्म का ग्रहण शक्तिरूप लक्षण घरें, जो काय योग, ताकरि ग्रह्या हुवा, जो पुद्गल-पिड, ताका उपकार कार्य, सो तिस शरीर विषै तिष्ठते अनंतानंत अन्य जीवनि का अर तिस जीव का उपकारी हो है । वहुरि अनतानत साधारण जीवनि का जो काय योग रूप शक्ति, ताकरि ग्रहे हूये पुद्गलपिडनि का कार्यरूप उपकार, सो कोई एक जीव का वा तिन अनतानत साधारण जीवनि का उपकारी समान एकै साथिपर्ने हो है । बहुरि एक बादर निगोद शरीर विषै वा सूक्ष्म निगोद शरीर विषै क्रम तै पर्याप्त वादर निगोद जीव वा सूक्ष्म निगोद जीव उपजं है । तहा पहले समय अनंतानत उपजै है । वहुरि दूसरे समय तिनते असंख्यात गुणा घाटि उपजे है । जैसे ही आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत समय-समय प्रति निरंतर असंख्यात गुणा वाटि क्रमकरि जीव उपजै है । ताते परे जघन्य एक समय, उत्कृष्ट यावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण काल का अंतराल हो है । तहा कोऊ जीव न उपजै है । तहां पीछे बहुरि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत निरंतर प्रसख्यात गुणा घाटि क्रम करि तिस निगोद शरीर विषै जीव उपजै है । से अन्तर सहित वा निरंतर निगोद शरीर विपे जीव उपजै है । सो यावत् प्रथम समय विषे उपज्या साधारण जीव का जघन्य निर्वृति अपर्याप्त श्रवस्था का काल अवणेप रहें, तावत् अँसे ही उपजना होइ । बहुरि पीछे तिनि प्रथमादि समयनि विषै उपजे सर्व साधारण जीव, तिनिकै ग्राहार, शरीर, इंद्रिय, सामीस्वास, पर्याप्तिनि की पूर्णता अपने-अपने योग्य काल विर्पे होइ है ।
खंधा असंखदोगा, अंडरआवासपुलविदेहा वि । हेट्ठिल्लजोरिगानो, असंखलोगे गुणिदकमा । १६४ ॥
स्कंधा संख्यलोकाः, अंडरावासपुलविदेहा अपि । वन्तनयोनिका, असंख्यलोकेन गुणितक्रमाः ।। १९४ ।।
टीका बादर निगोद जीवनि के शरीर की सख्या जानने निमित्त उदाहरण
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यह कथन करिए है । इस लोकाकाण विषै स्कंध यथा योग्य असंख्यात लोक प्रति प्रत्येक जीवनि के शरीर, तिनिको स्कंध कहिये है । सो यहु प्रसस्त करि लाब के प्रदेश गुणं, जो प्रमाण होइ, तितने प्रतिष्ठित प्रापित सफर इस योग दिये जानने । बहुरि एक-एक स्कध विपै प्रसंख्यात लोक