Book Title: Samaysara Kalash
Author(s): Amrutchandracharya, 
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 12
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तत् नः अयं एक: आत्मा अस्तु -----तत् कहतां तिहि कारण तहि। न: कहतां हम कहुं अयं कहतां विद्यमान छै, एक: कहतां शुद्ध , आत्मा कहतां चेतन पदार्थ, अस्तु कहतां होउ। भावार्थ इस्यो--जो जीव वस्तु चेतना लक्षण तौ सहज ही छै। परि मिथ्यात्व परिणाम करि भम्यो होतो अपना स्वरूप कहु नहीं जाने छै। तिहिं सहि अज्ञानी ही कहिजे। तहि तहि इसौ कह्यौ जो मिथ्या परिणमाके गया थी यौ ही जीव अपना स्वरूप को अनुभवन शीली होहु। कलश ६। स्वभावतः खण्डान्वयरूपसे अर्थ लिखने की पद्धति में विशेषणों और तत्सम्बंधी संदर्भ का स्पष्टीकरण बाद में किया जाता है। ज्ञात होता है कि इस कारण उत्तर काल में प्रत्येक कलश के प्रकृत अर्थको ‘खण्डान्वय सहित अर्थ' पद द्वारा उल्लखित किया जाने लगा है। किन्तु इसे स्वयं कविवर ने स्वीकार किया होगा ऐसा नहीं जान पड़ता, क्योंकि इस पद्धति से अर्थ लिखते समय जो शैली स्वीकार की जाती है वह इस टीका में अविकलरूप से दृष्टिगोचर नहीं होती। टीका में दूसरी विशेषता अर्थ करने की पद्धति से सम्बंध रखती है, क्योंकि कविवर ने प्रत्येक शब्दका अर्थ प्रायः शब्दानुगामिनी पद्धति से न करके भावानुगामिनी पद्धति से किया है। इससे प्रत्येक कलश में कौन सा शब्द किस भावको लक्ष्य में रखकर प्रयुक्त किया गया है इसे समझने में बड़ी सहायता मिलती है। इसप्रकार यह टीका प्रत्येक कलश के मात्र शब्दानुगामी अर्थ को स्पष्ट करने वाली टीका न होकर उसके रहस्य को प्रकाशित करने वाली भाव प्रणव टीका है। इसमें जो तीसरी विशेषता पाई जाती है वह आध्यात्मिक रहस्य को न समझनेवाले महानुभवोंको उतनी रुचिकर प्रतीत भले ही न हो पर इतने मात्रसे उसकी महत्ता कम नहीं की जा सकती। उदाहरणार्थ तीसरे कलश को लीजिये। इसमें षष्ठयन्त 'अनुभूते:' पद और उसके विशेषणरूप प्रयुक्त हुआ पद स्त्रीलिंग होनेपर भी उसे 'मम' का विशेषण बनाया गया है। कविवरने ऐसा करते हुए ‘जो जिस समय जिस भाव से परिणत होता है, तन्मय होता है' इस सिद्धान्त को ध्यान में रखा है। प्रकृत में सार बात यह है कि कवि अपने द्वारा किये गये अर्थ द्वारा यह सूचित करते हैं कि यद्यपि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे आत्मा चिन्मात्रमूर्ति है, तथापि अनुभूति में कल्मशता शेष है तत्सवरूप मेरी परम विशुद्धि होओ अर्थात् राग का विकल्प दूर होकर स्वभाव लक्ष्य से उत्पन्न हुई पर्याय को तन्मयरूपसे ही अनुभवता है। आचार्य अमृतचंद्र द्वारा भेद विवक्षा से किये गये कथन में यह अर्थ गर्भित है यह कविवरके उक्त प्रकारसे किये गये अर्थका तात्पर्य है। यह गूढ़ रहस्य है जो तत्वदृष्टि के अनुभव में ही आ सकता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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