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श्री समयसार परमागम
कविवर और उनकी रचनाओं के सम्बंधमें इतना लिखने के बाद समयसार कलश बालबोध टीका का प्राकृत में विशेष विचार करना है। यह कविवर की अध्यात्मरससे ओतप्रोत तत्सम्बन्धी समस्त विषयों पर सांगोपांग तथा विशद प्रकाश डालने वाली अपने काल की कितनी सरल, सरस और अनुपम रचना है यह आगे दिये जाने वाले उसके परिचय से भलीभाँति स्पष्ट हो जायेगा।
इसमें अणुमात्र भी संदेह नहीं कि श्रीसमयसार परमागम एक ऐसे आत्मज्ञानी महात्माकी वाणीका सुखद प्रसाद है जिनका आत्मा आत्मानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यक्दर्शनसे सुवासित था, जो अपने जीवन काल में ही निरंतर पुनः पुनः अप्रमत्त भाव को प्राप्त कर ध्यान, ध्याता और ध्येय के विकल्पसे रहित परम समाधिरूप आत्मीक सुखका रसास्वादन करते रहते थे, जिन्हें अरिहंत भट्टारक भगवान् महावीर की वाणी का सारभूत रहस्य गुरु परम्परासे भले प्रकार अवगत था, जिन्होंने अपने वर्तमान जीवन काल में ही पूर्व महाविदेह स्थित भगवन् सीमन्धर स्वामीके साक्षात् दर्शन के साथ उनकी दिव्य ध्वनिको आत्मसात् किया था तथा अप्रमत्त भाव से प्रमत्त भाव में आनेपर जिनका शीतल और विवेकी चित्त करुणा भाव से ओतप्रोत होने के कारण संसारी प्राणियोंके परमार्थ स्वरूप हित साधन में निरंतर सन्नद्ध रहता था। आचार्यवरने श्री समयसार परमागममें अनादि मिथ्यात्व से प्लावित चित्तवाले मिथ्यादृष्टियोंके गृहीत ओर अगृहीत मिथ्यात्वको छुड़ाने के सद्भिप्रायवश द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न एकत्वस्वरूप जिस आत्माके दर्शन कराये हैं और उसकी प्राप्तिका मार्ग सुस्पष्ट किया है वह पुरे जैन शासन का सार है। जिसके प्राप्त होने पर सिद्धस्वरूप आत्मा की साक्षात् प्राप्ति है ओर जिनके न प्राप्त होने पर भव बन्धनका रखड़ना है।
आत्मख्यातिवृत्ति
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार साररूप अपूर्व प्रमेयको सुस्पष्ट करनेवाला यह ग्रंथराज है उसीप्रकार इसके र्हाद को सरल, भावमयी और सुमधुर किन्तु सुस्पष्ट रचना द्वारा प्रकाशित करनेवाली तथा बुधजनों द्वारा स्मरणीय आचार्यवर अमृतचंद्र की आत्मख्याति वृत्ति है । यदि इसे वृत्ति न कह कर नय विशेष से श्री समयसार परमागमके स्वरूपको प्रकाशित करने वाला उसका आत्मभूत लक्षण कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी । श्री समयसार परमागम की यह वृत्ति किस प्रयोजन से निबद्ध की गई है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचंद्र तीसरे कलश में स्वयं लिखते हैं कि इस द्वारा शुद्धचिनमात्र मूर्तिस्वरूप मेरे अनुभवरूप परिणतिकी परम विशुद्धि अर्थात् रागादि विभाव परिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता होओ। स्पष्ट है कि उन द्वारा स्वयं आत्मख्याति वृत्तिके विषय में ऐसा भाव व्यक्त करना उसी तथ्यको सूचित करता है जिसका हम पूर्व में निर्देश कर आये हैं। वस्तुतः आत्मख्याति वृत्ति का प्रतिपाद्य विषय श्री समयसार परमागम में प्रतिपादित रहस्य को सुस्पष्ट करता है ।
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